Skip to main content

बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में जन-संचार माध्यमों की भूमिका


र्तमान समय में जन-संचार माध्यम एक बहुत ही सशक्त माध्यम है जिसका बच्चों के मन- मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है. रेडियो, टीवी, अखबार, पत्रिकाएं, कंप्यूटर, आदि ऐसे माध्यम हैं जिनके द्वारा कोई भी बात प्रभावपूर्ण तरीके से बच्चों के समक्ष प्रस्तुत की जा सकती है. इन माध्यमों का बच्चों पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के प्रभाव पड़ता है. जैसे इन माध्यमों के द्वारा विभिन्न प्रकार के मनोरंजक, सूचना व ज्ञान आधारित कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं. एक ओर जहां इन कार्यक्रमों से बच्चों में अपने आस-पास की दुनियां के विषय में समझ बढ़ती है वहीं कभी-कभी ये उन्हें संकीर्णता की ओर भी ले जाते है. साथ ही आवश्यकता से अधिक समय इन माध्यमों को देने से शारीरिक विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. अतः यह अति अवश्यक है कि बाल-विकास  में जन-संचार माध्यमों का न्यायसंगत तथा विवेकपूर्ण प्रयोग किया जाय. इस आलेख में बाल-विकास के संदर्भ में जन-संचार माध्यमों के प्रभावों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है.
जन-संचार माध्यम : एक परिचय
        जन-संचार (Mass-Communication) से तात्पर्य उन सभी साधनों के अध्ययन एवं विश्लेषण से है, जो एक साथ बड़ी जनसंख्या /जन समूह के साथ संवाद स्थापित करने में सहायक होते हैं. अर्थात जन-संचार माध्यम हमे विस्तृत आकार में बिखरे हुए समूह तक एक साथ संदेश पहुंचाने में मदद करता है. इस प्रकार के संचार में किसी- न - किसी माध्यम की अवश्यकता पड़ती है. रेडियो, समाचार-पत्र, टेलिविजन, टेप रिकॉर्डर, फ़िल्म, इंटरनेट, पत्रिकाएं आदि इसके माध्यम कहलाते हैं.
    कक्षा-कक्ष में पाठ्य-पुस्तकों के अलावा जन-संचार माध्यमों की उपयोगिता प्रमाणित हो चुकी है. कक्षीय परिस्थिति में अधिकतम शिक्षण अधिगम को प्रभावशाली बनाने के लिए शिक्षा तकनीकी के जन-संचार माध्यमों का प्रयोग एक उत्तम साधन है. हमें अपने विद्यालयों में अखबार, रेडियो, पोस्टर, पत्र-पत्रिकाओं का प्रयोग करना चाहिए. इन साधनों के विधिवत प्रयोग से बच्चों में संप्रेषण का गुण विकसित होगा. उनके मनोवैज्ञानिक विकास के लिए भी जन-संचार के साधनों का महत्वपूर्ण योगदान है. बच्चों द्वारा दृश्य-श्रव्य माध्यमों से प्राप्त ज्ञान व सूचनाओं को लंबे समय तक याद रखा जाता है. अतः निश्चित ही उनकी अधिगम क्षमता विकसित होगी.
बाल विकास में जन-संचार की भूमिका :
    बाल विकास के विभिन्न पहलुओं के दृष्टिकोण से जन-संचार माध्यमों की भूमिका उल्लेखनीय है. चाहे वह संज्ञानात्मक विकास हो, संवेगात्मक विकास हो, चारित्रिक विकास हो, सामाजिक विकास हो या फिर भाषागत विकास ; सभी विकास में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में जन-संचार माध्यम अपनी भूमिका निभाती है. वहीं दूसरी ओर जन-संचार माध्यम के त्रुटिपूर्ण उपयोग से उपर्युक्त तमाम विकास प्रभावित होता है. अर्थात जन संचार के विकृत स्वरूप के सान्निध्य में बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
    एक शिशु जो मूलतः जैविकीय प्राणी है, कैसे वह सामाजिक प्राणी बन जाता है और कई नयी परिस्थितियों के साथ कैसे सामंजस्य स्थापित करता है? ऐसा इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि बच्चे में आयु के साथ-साथ उसकी मानसिक शक्तियां और मानसिक प्रक्रियाएं विकसित होती है जिसे हम संज्ञानात्मक विकास कहते हैं, और इस संज्ञानात्मक विकास में जन-संचार माध्यम यथा-रेडियो, टीवी, समाचार पत्र, बाल-साहित्य, फ़िल्म आदि अपनी महती भूमिका निभाती है.
    बच्चों के अंदर संज्ञानात्मक विकास का होना भी जरूरी है. मानव व्यवहार में विभिन्न संवेग की भूमिका अहम है. बच्चों में भावनाओं का प्रकटीकरण संवेगों के माध्यम से ही होता है; यहां भी जन-संचार माध्यम अपनी भूमिका निभाता है.
    बच्चों में सही या गलत का विश्लेषण करने की क्षमता के विकास में भी परिवार, समुदाय और समाज के साथ-साथ जन-संचार का योगदान महत्वपूर्ण है. इस प्रकार बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए जन-संचार से सम्पर्क स्थापित करना नितांत जरूरी है.
रेडियो की भूमिका :
    भारत में रेडियो प्रसारण सेवा की शुरुआत 1936 में हुई. तब से लेकर आज तक लगातार रेडियो चैनलों की संख्या में इजाफा हुआ है. टीवी व मोबाइल के आ जाने के बाद रेडियो के श्रोताओं की संख्या में थोड़ी गिरावट जरूर आई है लेकिन आज भी रेडियो की महत्ता सामान रूप से विद्यमान है. खासकर विभिन्न एफ. एम. चैनलों के आ जाने से युवा वर्ग का रुझान फिर से रेडियो की तरफ बढ़ा है. विभिन्न मनोरंजक कार्यक्रमों का 24X7 प्रसारण रेडियो को अधिक लोकप्रिय बना रहा है. अब तो मोबाइल पर भी लोग एफ. एम. सहित सभी रेडियो चैनल का मजा लेते देखे जा सकते हैं.
    बाल विकास की जहां तक बात है तो हम पाते हैं कि रेडियो पर कई ऐसे कार्यक्रम प्रसारित होते हैं जो खासतौर पर बच्चों के लिए ही तैयार किए जाते हैं. जैसे फुलवारी, मीना की दुनियां, तारों की सैर, कुछ तुक्के-कुछ तीर, मन की बात, झिलमिल, English is Fun इत्यादि.
    बच्चों में संज्ञानात्मक, संवेगात्मक, भाषागत एवं नैतिक गुणों के विकास में रेडियो कार्यक्रमों को सुनने से बच्चों में संवाद कौशल, सुनने का गुण, तार्किक समझ, वाक्य संरचना, भाषा शुद्धता का विकास होता है. अतः बच्चों को नियमित रूप से एक निश्चित समय पर रेडियो का श्रवण जरूर करवाना चाहिए.
समाचार पत्रों की भूमिका :
    समाचार पत्र और पत्रिकाओं का बाल विकास में अपना विशेष योगदान है. बच्चो को रोचक कहानियों व घटनाओं के माध्यम से उनमें नैतिक विचारों का समावेशन किया जा सकता है. हम सभी जानते हैं कि सभी बच्चों को कहानियाँ पढ़ने में मज़ा आता है, अतः उन्हें समाचार पत्र में छपी प्रेरक व ज्ञानवर्धक कहानियाँ पढ़ने को देना चाहिए.
    समाचार पत्र व पत्रिका बच्चों के रचनाशीलता को भी बढ़ावा देता है. चित्रकला, कविता, कहानी, आप-बीती, चुटकुले, पहेलियां, एवं अन्य स्तंभों के माध्यम से बच्चों के सृजनात्मक क्षमता को एक मंच प्रदान करने का काम समाचार-पत्र /पत्रिकाएं करती है. आज तकरीबन हर समाचार पत्र साप्ताहिक रूप से बच्चों के लिए एक अलग कोना /पृष्ठ छापती है जहां बच्चों के मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञानवर्धक जानकारियां भी होती है जिससे बच्चों के विभिन्न गुणों का स्वाभाविक विकास होता है. अखबारों में जहां एक ओर बच्चों के रचनाशीलता को प्रोत्साहन मिलता है, वहीं कुछ हिंसक एवं अपत्तिजनक खबरें भी छपी होती हैं  जो बच्चो को विचलित भी करती है. अतः शिक्षक और अभिभावक को चाहिए कि वे बच्चों को सकारात्मक खबरों से जुड़ी पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध कराएं.
टेलिविजन की भूमिका :
    वर्तमान समय में टेलिविजन सबसे सुलभ जन-संचार माध्यम की श्रेणी में आ चुका है. विगत 15-20 वर्षों में टीवी चैनलों की बाढ़ सी आ गयी है. ऐसे में क्या देखें क्या छोड़ें की ऊहापोह की स्थिति उत्पन्न हो जाती है. टीवी पर हरेक वर्ग के लिए कार्यक्रम प्रसारित होते हैं. परिवार में बच्चों का लगाव टेलिविजन से कुछ अधिक होता है. वे अपने मनपसंद चैनल खोल कर देखते हैं. कार्टून चैनल इनका प्रिय चैनल होता है. टेलिविजन पर प्रसारित कार्यक्रमों में से कुछ चुनिंदा कार्यक्रमों को ही बच्चों को दिखाना चाहिए. एक समय भी निश्चित किया जाना चाहिए. क्योंकि दृश्य-श्रव्य माध्यम का प्रभाव बाल मन को अधिक प्रभावित करता है. अतः अभिभावकों का दायित्व बनता है कि बच्चों को यथा संभव टीवी देखने के समय का ध्यान रखा जाय.
    वैसे कई ज्ञानवर्धक धारावाहिक भी बच्चों को ध्यान में रख कर तैयार किए जाते हैं. कुछ धारावाहिक नैतिकता का भी संदेश देते हैं. बच्चों के देखभाल से जुड़ी सलाह, अच्छी-बुरी आदतों से जुड़ी सावधानियों एवं समान्य ज्ञान तथा विज्ञान पर आधारित एपिसोड /शो आदि का प्रसारण बच्चों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
    बच्चे स्वभाव से ही नकलची होते हैं, अर्थात वे किसी भी घटना का अनुकरण करना जल्दी सीख जाते हैं. ऐसे में हिंसक व अश्लील सामग्रियां बच्चों को परोसने से बचना चाहिए. बल्कि ज्ञानवर्धक एपिसोड/ कार्यक्रमों /व्याख्यानों /रिएलिटी शो देखने पर बल देना चाहिए. आजकल पाठ्यक्रम से जुड़ी दृश्य-श्रव्य सामग्रियां भी बाज़ार में उपलब्ध हैं, अतः उन सामग्रियों को टीवी के माध्यम से देखा जा सकता है.
कंप्यूटर की भूमिका :
    कंप्यूटर हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है. जीवन के हर क्षेत्र में आज कंप्यूटर की भूमिका महत्पूर्ण हो चुकी है. शिक्षा के क्षेत्र में तो अब कंप्यूटर अनिवार्य घटक के रूप स्थापित है. घर-घर बच्चे अपने Assignment एवं प्रोजेक्ट-वर्क के लिए कंप्यूटर /लैपटॉप का सहारा ले रहे हैं.
    विद्यालयों में स्मार्ट क्लास संचालित हैं जिसमे कंप्यूटर का उपयोग लाजिमी है. कंप्यूटर के द्वारा शिक्षक प्रेज़ेन्टेशन, शिक्षण शिक्षण सामग्री, साउंड इफैक्ट इत्यादि तैयार कर बच्चों तक पाठ को पहुंचाने का काम करते हैं. बच्चे भी अब पूर्व की अपेक्षा तेजी से जानकारियों को आत्मसात करने में सक्षम हैं. जिस विषय की पढ़ाई हो रही होती है उससे जुड़ी सामग्री बड़े ही सुंदर और रोचक ढंग से कंप्यूटर की सहायता से प्रोजेक्टर स्क्रीन अथवा सीधे LCD टेलिविजन पर दिखाई जा सकती है. अतः कंप्यूटर का प्रयोग कर बच्चों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया जा सकता है.
ज्ञातव्य है कि वर्तमान युग एवं आने वाले युग में कंप्यूटर के बिना किसी भी क्षेत्र में कार्य संचालन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. अतः बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए उन्हे कंप्यूटर का ज्ञान होना आवश्यक है. इसके लिए सबसे पहले शिक्षकों में ICT का ज्ञान अत्यंत अवश्यक है. इसके लिए SCERT BIHAR और केंद्र के मानव संसाधन विकास विभाग लगातार कई Online और ऑफलाइन कोर्स संचालित कर रही है.
मोबाइल की भूमिका :
    एक स्थान पर बैठे-बैठे देश-दुनियां के किसी भी हिस्से में रह रहे लोगों से कुछ ही पल में आसानी से सम्पर्क साधने में मोबाइल की भूमिका प्रशंसनीय है. यह विज्ञान के चमत्कारों की श्रेणी में अग्रणी है. अब तो मोबाइल सिर्फ एक दूसरे से सम्पर्क साधने का साधन मात्रा नहीं रहा बल्कि अब तो चलता-फिरता कंप्यूटर का रूप ले चुका है. दुनियां की तमाम जानकारियां अब स्मार्ट फ़ोन के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है. मोबाइल परिवार के सभी सदस्यों तक अपनी पहुंच बना चुका है. ऐसे में बच्चों के लिए यह एक आकर्षण का विषय बन गया है. बच्चे कौतूहलवश इसके तमाम कार्यप्रणाली को समझने की कोशिश करते हैं. इस क्रम में बच्चों की जिज्ञासा चरम पर होती है साथ ही सीखने की क्षमता अत्यंत प्रबल होती है. बच्चा विभिन्न मोबाइल एप्लीकेशन (Apps) को खोल कर उसको संचालित करने का प्रयास करता है. उसके इस व्यवहार से परिवार के अन्य सदस्य भी आह्लादित होते हैं.
    यहां ध्यान देने योग्य बात है कि बच्चों को मोबाइल के सम्पर्क में अधिक नहीं रखना चाहिए. मोबाइल से निरंतर हानिकारक तरंगें निकलती रहती है, जो वयस्कों की अपेक्षा बच्चों को अधिक प्रभावित करता है. ये किरणें बच्चों के मानसिक विकास के लिए अत्यंत हानिकारक हैं. अतः बच्चों को मोबाइल के सीमित प्रयोग के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए.
    कुछ बच्चे मोबाइल पर वीडियो गेम खेलने के अभ्यस्त हो जाते हैं, जिससे उनकी पढ़ाई बाधित होती है, आजकल बाज़ार में कई खतरनाक गेमिंग एप्प आज गए हैं जो बच्चों के लिए जानलेवा साबित हो रहें हैं. अतः बच्चो को एक तय समय सारणी के अनुसार ही मोबाइल पर विडियो गेम खेलने की अनुमति दी जानी चाहिए. अगर संभव हो तो मोबाइल पर बच्चों को कुछ तार्किक puzzle, Cross-word एवं Quiz से जुड़े गेम खेलने के लिए प्रेरित करना चाहिए. कई एजुकेशन से जुड़े मोबाइल एप भी उपलब्ध हैं जिसका प्रयोग बच्चे अपने पाठ्यक्रम को पूरा करने एवं प्रश्नों के हल जानने के लिए कर सकते हैं. इस प्रकार मोबाइल का सार्थक प्रयोग बालकों के विकास के लिए किया जा सकता है.
इंटरनेट का प्रयोग :    
    इंटरनेट तकनीक के विकास ने विश्व समुदाय में अनेक स्तरों पर बौद्धिक सामग्रियों का विनिमय अत्यंत सहज और सुगम कर दिया है. अनेकानेक प्रश्‍नों के समाधान के लिए की-बोर्ड पर बस एक बटन दबाने की जरूरत होती है. हमे विज्ञान के इस आविष्कार के आगे नतमस्तक होना पड़ता है. इंटरनेट का रचनात्मक पक्ष मानव समाज के बौद्धिक एवं नैतिक स्तर पर उत्थान का पर्याय बनता जा रहा है परंतु नकारात्मक व विकृत मानसिकता के लोगों द्वारा इस माध्यम का दुरुपयोग भी बढ़ता जा रहा है. जिससे सबसे अधिक प्रभावित बच्चे एवं किशोर हो रहे हैं. अश्लीलता को परोसती साइटें, हैकिंग के माध्यम से सूचनाओं की चोरी, साइबर बुलिंग और ट्रॉलिंग जैसी नकारात्मक गतिविधियां बच्चों और किशोरों के मन पर गहरा और हानिकारक प्रभाव छोड़ते हैं. इससे बच्चों का चारित्रिक एवं सामाजिक विकास अवरुद्ध हो जाता है. फलतः ऐसे में उनका सर्वांगीण विकास प्रभावित होगा जो समाज और देश के लिए खतरनाक साबित होगा.
वहीं दूसरी ओर इंटरनेट पर ज्ञान का खजाना उपलब्ध है, जहां बच्चे अपने पाठ्यक्रम से जुड़ी तमाम जानकारियां प्राप्त कर सकते हैं. विभिन्न सर्च इंजन  (गूगल, बिंग, याहू आदि) के माध्यम से किसी भी भ्रम को पल भर में दूर कर अपनी अवधारणा स्पष्ट कर सकते हैं.
अतः बच्चों के इंटरनेट के इस्तेमाल पर अभिभावकों एवं शिक्षकों को अपनी नज़र रखनी चाहिए. बच्चो को अवांछित वेबसाइट से दूर रहने एवं उसके नुकसान के बारे में प्यार से समझाना चाहिए ताकि वे इनके हानिकारक प्रभाव को समझ सके और इंटरनेट का विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग करना सीख सके.
सोशल मीडिया : जन-संचार के सशक्त माध्यम के रूप में :
    सोशल मीडिया की बादशाहत पूरे समाज के सिर चढ़ कर बोल रही है. हर आयु वर्ग के लोग इससे परिचित हैं. सोशल मीडिया समाज को जहां एक ओर जोड़ने का काम करती हैं वहीं इसके कुछ नकारात्मक पहलू भी है. परंतु सर्वप्रथम बच्चो के ऊपर इसके सकारात्मक प्रभाव का विश्लेषण करते हैं. बच्चे स्वभाव से ही जिज्ञासु होते हैं; वे विभिन्न सोशल साइट्स के द्वारा अपनी जिज्ञासा को शांत करे हैं. आजकल facebook सोशल मीडिया का पर्याय बन चुका है, जहां बच्चे विभिन्न उपयोगी पेज (Page) को पसंद कर रहे हैं, जिससे उन्हे ज्ञानवर्धक सूचनाएँ प्राप्त होती हैं. वहीं whatsapp group के द्वारा शिक्षकों एवं साथियों के साथ अपनी समस्याएं डिस्कस करते हैं. इतना ही नही ऑनलाइन विडियो चैट/ विडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए कक्षा में पढ़ाए जाने वाले पाठ को लाइव देख सकते हैं. यूट्यूब (Youtube) के जरिए विभिन्न ऑनलाइन क्लास संचालित किए जा रहे हैं जिसका फायदा बच्चे उठा सकते हैं.
    उपरोक्त विशेषताओं के साथ ही आज अगर सोशल मीडिया का सर्वाधिक दुष्प्रभाव किस वर्ग पर पड़ता है तो वो हैं बच्चे एवं युवा वर्ग. इंटरनेट व सोशल मीडिया पर अधिक समय बिताने वाले बच्चे पर माँ-बाप ध्यान न दें तो बच्चे गलत संगत में पड़ सकते हैं. लगातार कंप्यूटर/मोबाइल स्क्रीन से चिपके रहने के कारण बच्चे के दिमाग के साथ-साथ आँखों पर भी असर होता है. बच्चो को कम उम्र में ही चश्मे लगाने पड़ते हैं. इसके अलावा सरदर्द, पीठ का दर्द, गर्दन दर्द, चिड़चिड़ापन आदि समस्या भी होने लगती है. बाहर जाकर खेलने की प्रवृति घट रही है परिणामस्वरूप बच्चों की शारीरिक वृद्धि भी प्रभावित हो रहा है. अतः सोशल मीडिया का प्रयोग सीमित रूप से (आवश्यकतानुसार) होना जरूरी है. इस ओर अभिभावक का ध्यान जरूर होना चाहिए.
निष्कर्ष :
    बच्चों को विभिन्न जन-संचार माध्यमों के सम्पर्क में जरूर लाना चाहिए. इसमे शिक्षक / अभिभावक की भूमिका महत्पूर्ण है. परंतु ध्यान रखा जाना चाहिए कि बड़े ही सावधानी के साथ जरूरत के अनुसार ही इन माध्यमों से सम्पर्क स्थापित हो, ताकि उनका बचपन प्रभावित न हो, अर्थात बच्चो के नैसर्गिक विकास को अवरुद्ध किए बिना उनके विभिन्न पक्षों को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने का प्रयास किया जाना चाहिए.
    निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि जन-संचार माध्यमों का विवेकपूर्ण प्रयोग बाल-विकास के लिए वरदान साबित हो सकता है वहीं इसके नकारात्मक प्रयोग से बच्चों का विकास अवरुद्ध हो सकता है और सामाजिक व्यवस्था में विकृति आ सकती है.
****
संदर्भ :
1.    आधार पठन सामग्री, “बाल-विकास व मनोविज्ञान-1” पृष्ठ-18
2.    दैनिक जागरण अखबार के विभिन्न अंक
3.    basicshiksha.org
4.    inhindi.org
8.    चित्र : Google एवं अन्य स्रोत से साभार

रवि रौशन कुमार 
शिक्षक 
राजकीय उत्क्रमित माध्यमिक विद्यालय माधोपट्टी, 
प्रखंड-केवटी, जिला-दरभंगा 
 email ID : info.raviraushan@gmail.com

Comments

Popular posts from this blog

प्लास्टिक वरदान या अभिशाप

         सभी वैज्ञानिक आविष्कारों के पीछे समाज कल्याण की भावना छिपी रहती है। दुनिया के तमाम आविष्कार जनहित के लिये ही होता है। परंतु प्रत्येक कृत्रिम सुख सुविधाओं के अपने लाभ और हानि होती है। जब किसी वस्तु या सुविधा के लाभ उसके हानि की तुलना में कई गुना अधिक होता है तब हम उन नवीन आविष्कार को अपना लेते हैं। कभी-कभी दूरगामी प्रभावों की चिंता किये बिना ही हम किसी नवीन आविष्कारों को सिर्फ इसलिये भी अपना लेते है क्योंकि वे हमारे श्रम, समय और पैसे की बचत करता है। प्लास्टिक का ही उदाहरण अगर  लिया जाय तो हम देखते हैं कि जब प्लास्टिक या पॉलीथिन आदि का इस्तेमाल प्रारम्भ हुआ था उस वक़्त यह किसी वरदान से कम नहीं था। धरल्ले से प्लास्टिक प्रयोग शुरू हो गया। रोजमर्रा के जीवन में प्लास्टिक ने अपनी पैठ बना ली। लोगों ने भी इसे हाथोंहाथ लेना शुरू किया। कपड़े और जूट के बने थैले लेकर चलने में शर्मिंदगी का एहसास होने लगा। लोग खाली हाथ बाजार जाते और प्लास्टिक के ढेर सारे थैलों में चीजें भर-भर कर घर लाने लगे थे। लेकिन समय के साथ-साथ पॉलीथिन के दुष्परिणाम भी सामने आने लगे। आज ये गम...

पर्यावरण अध्ययन के प्रति जन चेतना की आवश्यकता

*पर्यावरण अध्ययन के प्रति जनचेतना की आवश्यकता*       मनुष्य इस समय जिन भौतिक सुख सुविधाओं और सम्पदाओं का उपभोग कर रहा है, वे सभी विज्ञान एवं तकनीकी ज्ञान के वरदान है, ‘‘लेकिन यदि विज्ञान एवं तकनीकी ज्ञान का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग नहीं किया गया तो इस वरदान को अभिशाप में बदलते देर नहीं लगेगी। ऊर्जा उत्पादनों के संयंत्र, खनन, रासायनिक एवं अन्य उद्योग आज के मनुष्य के कल्याण के लिए अपरिहार्य बन गये हैं। लेकिन ये ही चीजें हमारी बहुमूल्य सम्पदाओं, यथा, वन, जल, वायु एवं मृदा आदि को अपूर्णीय क्षति भी पहुँचा सकती है। पर्यावरणीय अवनयन के खतरे नाभकीय दुर्घटनाओं के समकक्ष खतरनाक है, लेकिन इस भय से औद्योगीकरण एवं विकास योजनाओं को बन्द नहीं किया जा सकता। इसलिए हम सभी को एक मध्यम मार्ग अपनाने की जरूरत है। इस मध्यम मार्ग का अर्थ है सम्पोषित अथवा निर्वहनीय विकास की नीति को अपनाना। मनुष्य में निर्वहनीय विकास एवं उसकी जीवनषैली को अपनाने की समझ तो सम्यक पर्यावरणीय अध्ययन के प्रति जनचेतना को प्रबुद्ध करने से ही उत्पन्न हो सकती है।’’       पर्यावरण अध्ययन के प्रति जन...