जब हमारा देश गरीब हुआ करता था तब नियुक्तियां स्थायी हुआ करती थी, पेंशन, अनुकंपा और न जाने कितने लाभ यहां के कर्मचारियों को मिलती थी। निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों का अनोखा संगम दिखता था। तकनीकी स्तर पर भले ही हम कमजोर थे लेकिन सामाजिक ताना-बाना बहुत ही मजबूत हुआ करती थी। लेकिन आज जबकि देश विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने को आतुर है हमने अपने देश में निजीकरण को बढ़ावा देना प्रारंभ कर दिया है। सारी सार्वजानिक उद्यमों को बेचने की पूरी तैयारी की जा चुकी है। कर्मचारियों का शोषण चरम पर है। सरकारी कर्मियों की सुरक्षा और कल्याण के मुद्दे पर सुनने को कोई तैयार नहीं है। क्या हम ऐसे ही लोकतन्त्र की कल्पना किए थे? क्या इसी तर्ज पर हम एक लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को मूर्त रूप दे पाएंगे। आजादी के 74वें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं फिर भी हमारे चुनाव के मुद्दे नहीं बदले हैं। वही गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार! आखिर कब तक? हमें इन मूलभूत चुनौतियों से तो कब की मुक्ति मिल जानी चाहिए थी अब तो वक़्त था शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण और साइबर सुरक्षा जैसे मुद्दों को चुनावी मुद्दा बनाने की। लेक...
"Knowledge is Power"