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महर्षि अरविंद का शिक्षा दर्शन



     रविन्द घोष का जन्म 15 अगस्त 1872ई0 को कलकत्ता में हुआ था। इन्होंने युवावस्था में स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया। ये गरम दल के नेता माने जाते थे परन्तु कालान्तर में वे एक योगी बन गए और पाण्डिचेरी (वर्तमान में पुद्दुचेरी) में अपना आश्रम स्थापित किया। इन्होंने वेद, उपनिषद आदि पर टीका लिखी। इन्होंने योग साधना एवं शिक्षा दर्शन पर मौलिक रचनाएँ की।
    महर्षि अरविन्द ने भारतीय शिक्षा चिन्तन में महत्वपूर्ण योगदान किया। उन्होंने सर्वप्रथम घोषणा की, कि मानव सांसारिक जीवन में भी दैवी शक्ति प्राप्त कर सकता है। वे मानते थे कि मानव भौतिक जीवन व्यतीत करते हुए तथा अन्य मानवों की सेवा करते हुए अपने मानस को अतिमानस एवं स्वयं को अतिमानव में परिवर्तित कर सकता है।
    अरविन्द के मुताबिक शिक्षण एक विज्ञान है, जिसके द्वारा विद्यार्थियों के व्यवहार में परिवर्त्तन आना अनिवार्य है। उनके शब्दों में- ‘‘वास्तविक शिक्षण का प्रथम सिद्धान्त है कि कुछ भी पढ़ाना संभव नहीं अर्थात् बाहर से शिक्षार्थी के मस्तिष्क पर कोई भी चीज न थोपी जाए। शिक्षण प्रक्रिया द्वारा शिक्षार्थी के मस्तिष्क की क्रिया को ठीक दिशा देनी चाहिए।’’
      प्रत्येक विद्यार्थी को शक्ति, अभिवृत्ति एवं योग्यता के अनुकूल शिक्षा देनी चाहिए। विद्यार्थी अपनी प्रवृत्ति के अनुसार विकास के अवसर मिलने चाहिए। अरविन्द मस्तिष्क को छठी ज्ञानेन्द्रिय मानते थे; जिसके विकास पर वे अधिक बल देते थे। विकसित मानस से सूक्ष्म दृष्टि उत्पन्न होती है, जिससे निष्पक्ष दृष्टिकोण विकसित होता है। योग द्वारा ‘चित्त शुद्धि’ शिक्षण का लक्ष्य होना चाहिए। अरविन्द की दृष्टि में वही शिक्षक प्रभावी शिक्षण कर सकता है जो उपरोक्त विधि से विद्यार्थी का विकास करे। शिक्षित विद्यार्थियों को ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मस्तिष्क के सही उपयोग द्वारा उनकी पर्यवेक्षण, अवधान (Attention), निर्णय व स्मरण शक्ति का विकास करने में सहायता करें। शिक्षण बालकों की तर्क शक्ति के विकास द्वारा उनमें अंतर्दृष्टि उत्पन्न करें। महर्षि अरविन्द शिक्षक का महत्व प्रकट करते हुए कहते थे कि -
    ‘‘शिक्षक प्रशिक्षक नहीं है, वह तो सहायक एवं पथ प्रदर्शक है। वह केवल ज्ञान ही नहीं देता बल्कि वह ज्ञान प्राप्त करने की दिशा भी दिखलाता है। शिक्षण-पद्धत्ति की उत्कृष्टता उपयुक्त शिक्षक पर ही निर्भर होती है।’’
शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य :    
    श्री अरविन्द के अनुसार शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायक होना तथा उसे उच्च आदर्शों के लिए प्रयोग हेतु सक्षम बनाना है।
अरविन्द की शिक्षा पद्धत्ति की संकल्पना :
    अरविन्द इस प्रकार की शिक्षा पद्धत्ति चाहते थे जो विद्यार्थी के ज्ञान-क्षेत्र का विस्तार करे, जो विद्यार्थियों को स्मृति, निर्णयन शक्ति एवं सर्जनात्मक क्षमता का विकास करे तथा जिसका माध्यम मातृभाषा हो। श्री अरविन्द राष्ट्रीय विचारों के थे, अतः वे शिक्षा-पद्धत्ति को भारतीय परम्परानुसार ढ़ालना चाहते थे। उन्होंने शिक्षा द्वारा पुनर्जागरण का संदेश दिया था। यह पुनर्जागरण तीन दिशाओं की ओर उन्मुख होना चाहिए-
  • प्राचीन अध्यात्म-ज्ञान की पुनर्स्थापना
  • इस अध्यात्म-ज्ञान की दर्शन, साहित्य, कला, विज्ञान व विवेचनात्मक ज्ञान में प्रयोग,
  • वर्तमान समस्याओं का भारतीय आत्म-ज्ञान की दृष्टि से समाधान की खोज तथा आध्यात्म प्रधान समाज की स्थापना।
    निष्कर्षतः शिक्षा के द्वारा ही व्यक्ति की अन्तर्निहित बौद्धिक एवं नैतिक क्षमताओं का सर्वोच्च विकास संभव है। महर्षि अरविन्द का भी विश्वास था कि मानव दैवी शक्ति से समन्वित है और शिक्षा का लक्ष्य इस चेतना शक्ति का विकास करना है। उन्होंने एक बार कहा था कि- ‘मस्तिष्क का उच्चतम सीमा तक पूर्ण प्रशिक्षण होना चाहिए अन्यथा बालक अपूर्ण एवं एकांगी रह जाएगा। अतः शिक्षा का लक्ष्य मानव-व्यक्ति के समेकित विकास हेतु अतिमानस (Super mind)का उपयोग करना है।’

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रवि रौशन कुमार,
शिक्षक,
राजकीय उत्क्रमित माध्यमिक विद्यालय, 
माधोपट्टी, केवटी, दरभंगा।
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