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Showing posts from January, 2021

विवेकानन्द का शिक्षा-दर्शन

स्वामी विवेकानन्द मैकाले द्वारा प्रतिपादि त और उस समय प्रचलित अेंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के विरोधी थे ,  क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ बाबुओं की संख्या बढ़ाना था। वह ऐसी शिक्षा चाहते थे जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सके। बालक की शिक्षा का उद्देश्य उसको आत्मनिर्भर बनाकर अपने पैरों पर खड़ा करना है। स्वामी विवेकानन्द ने प्रचलित शिक्षा को  ' निषेधात्मक शिक्षा '  की संज्ञा देते हुए कहा है कि आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली हों तथा जो अच्छे भाषण दे सकता हो ,  पर वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती ,  जो चरित्र निर्माण नहीं करती ,  जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं करती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती ,  ऐसी शिक्षा से क्या लाभ ? स्वामी जी शिक्षा द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन के लिए तैयार करना चाहते हैं । लौकिक दृष्टि से शिक्षा के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि  ' हमें ऐसी शिक्षा चाहिए ,  जिससे चरित्र का गठन हो ,  मन का बल बढ़े ,  बुद्धि का ...

खतरे में कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य

                  पक्षी पारिस्थितिकी तंत्र एवं पर्यावरण के संतुलन में अहम योगदान करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण जलाशयों की सूची बनाने के लिए रामसर कंवेन्शन ब्यूरो ने भी पक्षियों को पर्यावरण के स्वास्थ्य का मुख्य सूचक माना है। आंकड़ों के मुताबिक भारत में पक्षियों की 1200 से ज्यादा प्रजातियों तथा उपप्रजातियों के लगभग 2100 प्रकार के पक्षी पाए जाते हैं। इनमें लगभग 350 प्रजातियां प्रवासी हैं जो शीतकाल में यहां आती हैं। कुछ प्रजातियां जैसे पाइड क्रेस्टेड कक्कु (चातक) भारत में बरसात के समय प्रवास पर आते हैं। पक्षियों की कई प्रजातियां अपने ही देश की सीमा में सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय करती हैं , जिन्हें स्थानीय स्तर के प्रवासी पक्षी (लोकल माइग्रेटरी बर्ड्स) कहा जाता है। पक्षीवैज्ञानिकों के अनुसार जो पक्षी यहां प्रजनन करते हैं , वे स्थानीय होते हैं।                बिहार के दरभंगा जिला मुख्यालय से 70 किमी. सुदूर पूरब में कुशेश्वरस्थान पक्षी विहार अवस्थित है। ठंड की दस्तक के साथ ही बिहार के कुशेश्व...

मौर्य कला

मौर्य कला का विकास भारत में मौर्य साम्राज्य के युग में हुआ। सारनाथ और कुशीनगर जैसे धार्मिक स्थानों में स्तूप और विहार के रूप में स्वयं सम्राट अशोक ने इनकी संरचना की। मौर्य काल का प्रभावशाली और पावन रूप पत्थरों के इन स्तम्भों में सारनाथ, इलाहाबाद, मेरठ, कौशाम्बी, संकिसा और वाराणसी जैसे क्षेत्रों में आज भी पाया जाता है। मौर्य काल से पूर्व वास्तुकला और मूर्तिकला के मूर्त उदाहरण कम ही मिलते हैं। मौर्य काल में ही पहले-पहल कलात्मक गतिविधियों का इतिहास निश्चित रूप से प्रारम्भ होता है। राज्य की समृद्धि और मौर्य शासकों की प्रेरणा से कलाकृतियों को प्रोत्साहन मिला। इस युग में कला के दो रूप मिलते हैं। एक तो राजरक्षकों के द्वारा निर्मित कला, जो कि मौर्य प्रासाद और अशोक स्तंभों में पाई जाती है। दूसरा वह रूप जो परखम के यक्ष दीदारगंज की चामर ग्राहिणी और वेसनगर की यक्षिणी में देखने को मिलता है। राज्य सभा से सम्बन्धित कला की प्रेरणा का स्रोत स्वयं सम्राट था। यक्ष-यक्षिणियों में हमें लोककला का रूप मिलता है। लोककला के रूपों की परम्परा पूर्व युगों से काष्ठ और मिट्टी में चली आई है। अब उसे पाषाण के माध्यम से...