#MeToo कैंपेन : आलोचनात्मक टिप्पणी




एक तरफ़ हम सभी महिलाओं को जागरूक करने की बात करते हैं, उन्हें अपने हक़ के लिए लड़ने को कहते हैं, अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाने की नसीहत देते हैं; और दूसरी तरफ जब महिलाएं अपने ऊपर हुए अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाती है तो हम उनके आवाज को दबाने के लिये हर सम्भव प्रयास में जुट जाते हैं। हाल के #MeToo कैंपेन का ही उदाहरण लीजिये; कितने ही रसूखदार लोगों के खिलाफ सम्भ्रांत महिलाओं ने आरोप लगाया है। चाहे वो क्रिकेटर हो, पत्रकार हो, अभिनेता हो, राजनेता हो या अन्य किसी भी क्षेत्र से सम्बंध रखने वाले लोग हों। सभी ने इन आरोपों को एक सिरे से नकार दिया है, इतना ही नहीं आवाज उठाने वाली महिलाओं के खिलाफ मान हानि का मुकदमा तक ठोक दिया है। सरकार में बैठे लोगों पर भी ऐसे आरोप लगे हैं। जरा सोचिए ऐसे में कोई महिला/युवती अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने का हौसला कहाँ से जुटा पाएंगी। ज्ञातव्य हो कि विदेशों में अगर ऐसे आरोप किसी मंत्री अथवा नेता पर लगता है तो तुरंत उनसे इस्तीफा ले लिया जाता है। लेकिन हमारे प्रधान सेवक की चुप्पी यह साबित करती है कि भारत में कानून का चाबुक सिर्फ आम जनता पर ही पड़ता है।

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