विज्ञान के सामाजिक सरोकार
_"वे लोग जो विज्ञान(सिद्धान्त) के बिना व्यवहार में जुट जाते हैं उस नाविक की तरह होते हैं जो बिना नियंत्रण वाले और बिना दिशा वाली कुतुबनुमा के जहाज में सफर कर रहा है, और जिसे इसका जरा भी भरोसा नहीं कि वह कहां जा रहा है।" ---लियोनार्दो द विंची
विज्ञान और तकनीकी के विकास का मुख्य उद्देश्य जीवन को अधिक सुखमय बनाना है। साथ ही समाज को एक नए दृष्टिकोण भी प्रदान करना जो लोगों में तर्क करने की शक्ति प्रदान करे। इस तरह देखा जाय तो विज्ञान का गहरा सामाजिक सरोकार है। लेकिन हमारे देश और समाज में एक अजीब विरोधाभास दिखाई दे रहा है । एक तरफ विज्ञान की उपलब्धियों का तेजी से प्रसार हो रहा है तो दूसरी तरफ के जनमानस में वैज्ञानिक नजरिये के बजाय अंधविश्वास, कट्टरपंथ, पोंगापंथ, रूढ़ियों और परम्पराएँ आजादी के 70 वर्षों के बाद भी हमारे समाज के अंशतः व्याप्त है जो कभी-कभी हमे सोचने पर मजबूर कर देता है। वैश्वीकरण के प्रबल समर्थक और उससे सबसे अधिक फायदा उठाने वाले तबके ही भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर अतीत के प्रतिगामी, एकांगी और पिछड़ी मूल्य–मान्यताओं को महिमामंडित कर रहे हैं । वैज्ञानिक नजरिया, तर्कशीलता, प्रगतिशीलता और धर्म निरपेक्षता की जगह अंधश्रद्धा, संकीर्णता और असहिष्णुता को बढ़ावा दिया जा रहा है। विज्ञान शिक्षण का उद्देश्य सिर्फ विज्ञान के विशुद्ध रूप को ही बच्चों तक पहुंचाने का लक्ष्य नहीं होना चाहिये अपितु बच्चों में विज्ञान के सामाजिक सरोकार से जुड़े पक्षों का भी संचार होना चाहिये। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग अपने विभिन्न स्वायत्त संस्थाओं के माध्यम से ऐसे कार्यक्रम वर्षों से चला रहा है लेकिन इन कार्यक्रमों का लाभ शहरी परिवेश के बच्चों को ही मिल पाता है आवश्यकता है ग्रामीण परिवेश में विज्ञान संचार को फैलाने की।
समाचार पत्रों में तांत्रिकों द्वारा बच्चों की बली देने या महिलाओं का यौन शोषण करने, डायन होने का आरोप लगाकर महिलाओं की हत्या करने तथा झाड़–फूंक, जादू–टोना और गंडा–ताबीज के द्वारा लोगों को ठगने की खबरें अक्सर आती रहती हैं । अंधविश्वास, पुनर्जन्म और भूत–प्रेत के किस्से प्रसारित किये जाते हैं । आश्चर्य ये होता है कि आज भी इन समस्याओं के विरुद्ध सख्ती से अपने पक्ष को नहीं रख पाते हैं। आवश्यकता है विद्यालय स्तर पर वैज्ञानिक जागरूकता की। विज्ञान क्लब, विज्ञान मंडली एवम अन्य माध्यमों से नियमित रूप से गांव-गांव में वैज्ञानिक जागरूकता फैलाने की। निरक्षर एवं समाज के अंतिम पंक्ति के लोगों का कल्याण सुनिश्चित करना ही विज्ञान की सार्थकता को सिद्ध कर सकता है। वरना विज्ञान सिर्फ किताबों और प्रयोगशालाओं तक सीमित हो जाएगा।
विज्ञान का अध्ययन–अध्यापन करने वाला कोई भौतिकशास्त्र का शिक्षक यह जानता है कि पदार्थ को उत्पन्न या नष्ट नहीं किया जा सकता। लेकिन निजी जिन्दगी में वह किसी बाबा द्वारा चमत्कार से भभूत पैदा करने या हवा से फल या अंगूठी निकालने में यकीन करता है । यह उस शिक्षक का अज्ञान नहीं बल्कि वैज्ञानिक नजरिये का अभाव है । उसके लिये विज्ञान की जानकारी केवल रोजी–रोटी कमाने का जरिया है । जीवन में उसे उतारना या कथनी–करनी के भेद को मिटाना उसकी मजबूरी नहीं । और तो और ऐसे अर्धज्ञानी अक्सर कुतर्क के जरिये अंधविश्वास को सही ठहराने में विज्ञान का इस्तेमाल करने से भी बाज नहीं आते । विज्ञान को जब तक शिक्षण संस्थानों और प्रयोगशालाओं से बाहर निकाल कर आम लोगों तक नहीं पहुंचाया जाएगा तब तक विज्ञान के सामाजिक सरोकार पूर्ण नहीं होंगे।
अतः विज्ञान अध्ययन की सार्थकता तभी सम्भव होगी जब समाज मे घट रही घटनाओं के प्रति तर्क करने की क्षमता का विकास हो और वैज्ञानिक नजरिये को बढ़ावा मिले। इसके लिये मेरे कुछ सुझाव इस प्रकार हैं कि;
◆ विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा अथवा बोलचाल की भाषा मे दी जाय।
◆ वैज्ञानिक जागरूकता से सम्बंधित सामग्री का प्रकाशन स्थानीय भाषा में हो।
◆ विज्ञान संचार में दृश्य-श्रव्य माध्यमों का सहारा लिया जाय।
◆ ग्रामीण परिवेश के बच्चों और अभिभावकों में वैज्ञानिक चेतना जागृत करने लिये विशेष आयोजन यथा- नुक्कड़ नाटक, गीत-नृत्य, काव्य गोष्टी, विज्ञान प्रदर्शनी का नियमित आयोजन हो।
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सन्दर्भ सूची :-
१. साइंस एंड सोसाइटी, रिसर्च जर्नल, (दरभंगा, बिहार) दिसंबर-२०११, अंक-1, पृष्ठ-९४-९६.
२. विभिन्न समाचार पत्र व पत्रिकायें।
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रवि रौशन कुमार, (प्रखंड शिक्षक), राजकीय उत्क्रमित माध्यमिक विद्यालय, माधोपट्टी, दरभंगा

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