Skip to main content

सीखने-सिखाने के उद्देश्य से विद्यालय भवन एवं अन्य संरचनाओं का सृजनात्मक उपयोग

सीखने-सिखाने के उद्देश्य से विद्यालय भवन एवं अन्य संरचनाओं का सृजनात्मक उपयोग

रवि रौशन कुमार

बच्चे अपने संसार को बहु इंद्रियों से महसूस करते हैं विशेषकर दृष्टि और स्पर्श इंद्रियों से। एक त्रिआयामी स्थान बच्चों को सीखने के लिए एक विशेष व्यवस्था दे सकता है क्योंकि यह पाठ्यपुस्तकों तथा ब्लैकबोर्ड का साथ देते हुए बच्चों के लिए बहु इंद्रिय अनुभव प्रस्तुत कर सकता है। स्थानिक आयामों, संरचनाओं, आकारों, कोणों, गति तथा स्थानिक विशेषताओं, जैसे-अंदर-बाहर, सममिति, ऊपर-नीचे का उपयोग, भाषा, विज्ञान, गणित तथा पर्यावरण की मूल अवधारणाओं को संप्रेषित करने के लिए किया जा सकता है। ढ़ाँचागत सुविधाएँ शिक्षार्थियों के लिए अनुकूल स्थितियाँ बनाने व गतिविधि-केन्द्रित संदर्भ उपलब्ध करवाने के लिए जरूरी है। 
विद्यालय को एक अंत-क्रियात्मक भौतिक स्थल के तौर पर देखा जाता है। सीखने-सिखाने के उद्देश्य से भवन, मैदान, परिसर, दीवार या विद्यालय अथवा उसके इर्द-गिर्द उपलब्ध अन्य जगहों का सृजनात्मक उपयोग करने की सिफारिश राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 में भी वर्णित है।
विद्यालय के वातावरण में सीखने के लिए ऐसी संभावनाएं पैदा करना अब लोकप्रिय रूप से Building as Learning Aid (BaLA बाला) के रूप में जाना जाता हैं। बाला विद्यालय के संपूर्ण भौतिक वातावरण- अंदर, बाहर, अर्द्ध-खुली जगहें अथवा हरेक जगह को सीखने के यंत्र के रूप में विकसित करने का सिद्धांत है। यह एक निर्मित भवन के शैक्षिक मूल्य को अधिकतम करने के बारे में है। यह सिद्धान्त ‘बच्चे कैसे सीखते हैं?’ पर आधारित है।
विद्यालय भवन का सृजनात्मक उपयोग बच्चों के निम्नलिखित विकास में मदद कर सकता है। 
  1. भाषा और संवाद कौशल
  2. प्रकृति और पर्यावरण से जुड़ाव
  3. संख्यात्मक कौशल
  4. अवलोकन शक्ति का विकास
  5. उपलब्ध सामग्रियों की महत्ता का एहसास करने की क्षमता
  6. ठोस उदाहरणों के माध्यम से अवधारणा को स्पष्ट करने की क्षमता का विकास
Building as Learning Aid (BaLA) का वातावरण कैसा होता है?
  1. बच्चों के अनुकूल सीखने का माहौल 
  2. सामूहिक गतिविधियां करनके सीखना
  3. प्रत्येक बच्चे को उसके सीखने की गति के अनुसार अवसर देना
  4. सीखने की प्रक्रिया में अनेक इंद्रियों को शामिल करना
  5. समावेशी वातावरण का निर्माण करना
  6. अभ्यास करने और उससे सीखने की गति को तीव्र करना, इत्यादि।
विद्यालय भवन को सृजनात्मक कैसे बनाएँ?
विद्यालय भवन विद्यालय की सबसे महँगी भौतिक संपत्ति होता है। उससे सर्वाधिक शैक्षिक मूल्य निकालना चाहिए। भवन के नवीनीकरण या निर्माण के समय सृजनात्मक एवं व्यावहारिक समाधानों का प्रयोग करके भवन के शैक्षिक मूल्यों को अधिकतम तक बढ़ाया जा सकता है। इसप्रकार भौतिक वातारण में बदलाव न केवल सौंदर्य परिवर्तन है बल्कि एक स्वाभाविक रूपांतर है, जिसमें भौतिक स्थान शिक्षाशास्त्र और बच्चों से जुड़ जाता है। देश के विभिन्न भागों में विद्यालय एवं कक्षाओं में बड़े-बड़े चित्र स्थायी रूप से लगे रहते हैं। इस प्रकार के दृश्य होते तो आकर्षक है परन्तु कुछ समय के बाद नीरस लगने लगते हैं। ऐसे में उस स्थान को आकर्षक बनाने के लिए बेहतर होगा कि बच्चों द्वारा बनाई गई कलाकृतियों या शिक्षकों द्वारा बनाई गई कृतियों को जगह दिया जाए जो प्रत्येक महीने बदल दिए जाए।
भवन के खम्भों की घटती-बढ़ती परछाईयाँ जो धूप घड़ी की तरह समय मापने के विभिन्न तरीके समझा सकती है। 
खिड़कियाँ :-
विद्यालय भवन में लगी खिड़कियों के ग्रील (जाली) के माध्यम से भी बच्चों को बहुत कुछ सिखाया जा सकता है। बच्चों में गणितीय अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए ग्रील निर्माण के दौरान ही उसमें विभिनन आकृतियों (वृत्त, त्रिभुज, वर्ग, आयत आदि) का समावेशन करवाया जा सकता है। कक्षा में ये खिड़कियां गणित की अवधारणा को समझाने के दौरान टी.एल.एम. की भूमिका निभाती हैं। भिन्न की अवधारणा को समझाने में भी इन खिड़कियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। अतः विद्यालय के निर्माण के क्रम में ऐसी खिड़कियों को डिजाईन करवाना चाहिए।
विद्यालय भवन में लगे दरवाजे से भी बहुत सारी गतिविधियाँ कराई जा सकती है। जैसे-कोण की अवधारणा (समकोण, अधिककोण, न्यूनकोण), लम्ब की अवधारणा, चतुर्भुज की अवधारणा इत्यादि। दरवाजों के खुलने एवं बन्द होने की गति एवं सिटकनी की गति, कब्जे की गति आदि से गति की अवधारणा स्पष्ट करवायी जा सकती है। दरवाजों को भिन्न-भिन्न रंगों से रंगकर उससे बच्चों में रंग के विषय में भी बताया जा सकता है।
एन.सी.एफ.-2005 में भी भवन को सृजनात्मक बनाने पर बल दिया गया है। इसको बढ़ावा देने के लिए विद्यालय भवन के पारंपरिक ढाँचों में बदलाव लाने की अपेक्षा की गई है।
दिव्यांग बच्चों के लिए भवन के बरामदे तक पहूँच बनाने के लिए रैम्प निर्माण आवश्यक है यह भवन निर्माण के संदर्भ में दिए गए दिशानिर्देशों के आलोक में अनिर्वाय भी है।
खेल का मैदान का सृजनात्मक प्रयोग :-
खेल का मैदान या एक ऐसा खुला स्थान जहाँ बच्चे अपनी मर्जी से गतिविधियाँ कर सके, लगभग सभी विद्यालयों में ऐसे खुले स्थान उपलब्ध होते हैं। परन्तु इस स्थान का सृजनात्मक प्रयोग नहीं हो पाता।
ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि खेल के मैदान में हर आयु-वर्ग के बच्चे अपनी-अपनी पसंद के मुताबिक खेल व गतिविधियाँ कर सकते हैं।  एक ऐसा स्थान जहाँ बच्चे मिट्टी और बालू के साथ खेलते हुए भारत के रेखांकित नक्शें में पहाड़, नदियाँ तथा घाटी बनाएं, स्थान की छानबीन करे। बच्चों को भरपूर मौका मिले ताकि वे अपने खोजों एवं छानबीन के द्वारा प्राकृतिक वातारण में स्वयं की अधिगम सामग्री खुद बना ले। ऐसा माहौल उत्पन्न किया जाए ताकि बच्चों को विभिन्न प्राकृतिक चीजों के रंगों की पहचान, वनस्पतियों की पहचान, बागवानी, जल-संरक्षण, वर्षा जल एकत्रीकरण जैसे ढ़ेरों गतिविधियों को करने का मौका मिले।
दीवार लेखन एवं दीवार चित्र का प्रयोग :-
विद्यालय भवन की दीवार, वर्ग कक्ष की दीवार एवं चाहरदीवारी का प्रयोग भी सीखने-सिखाने के लिए किया जा सकता है। बच्चों को दृश्य साधन के रूप में कई दीवार चित्रों एवं दीवार लेखन का प्रयोग कर उनके अधिगम क्षमता को सकारात्मक ढ़ंग से प्रभावित किया जा सकता है।
विभिन्न विषयों से जुड़े पाठ को चित्रों के माध्यम से इन दीवारों पर अभिव्यक्त कर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को रोचक व गतिशील बनाया जा सकता है। 
अंग्रेजी वर्णमाला, मानचित्र, सजीव-निर्जीव वस्तु, हिन्दी के पाठ से जुड़े रेखाचित्र, गणितीय प्रतिरूप आदि को प्रदर्शित किया जा सकता है। इस प्रकार विद्यालय के दीवरों का सृजनात्मक प्रयोग ही नहीं होगा अपितु विद्यालय भवन अधिक आकर्षक भी बनेंगे, जिससे बच्चों में ज्ञानार्जन के प्रति रूचि बढ़ेगी।
फर्नीचर :-
फर्नीचर का सृजनात्मक उपयोग सुनने में अटपटा जरूर लग सकता है परन्तु एक रचनात्मक दृष्टिकोण रखने वाला शिक्षक विद्यालय में फर्नीचर का प्रयोग भी सीखने-सिखाने के लिए सहायक सामग्री के रूप में कर सकता है। विद्यालय में उपलब्ध कुर्सी, टेबुल, बेंच, डेस्क तथा अन्य फर्नीचरों से भी बहुत सारे नवाचारी प्रयोग किये जा सकते हैं। बच्चों में जोड़, घटाव, गुणा जैसे साधारण गणितीय अवधारणा को स्पष्ट करने में ये फर्नीचर अत्यन्त उपयोगी साबित हो सकते हैं। उदाहरण के तौर पर अगर एक कुर्सी में चार पैर हैं तो ऐसे तीन कुर्सियों में कुल कितने पैर होंगे?, कुर्सियों में बने डिजाईन में छिपे ज्यामितीय आकृतियाँ (समानान्तर पट्टियाँ, कोण, भुजा, आयत, वर्ग आदि) के बारे में बच्चों से प्रश्न पूछे जा सकते हैं एवं उन प्रश्नों को उत्तर बच्चे व्यावहारिक ढंग से सीख कर आत्मसात कर पाएंगे।
इसके अलावा विद्यालय में हर आयु-वर्ग के साथ-साथ अलग-अलग ऊँचाई के बच्चों के लिए पृथक ऊँचाई और आकृति के बेंच-डेस्क अथवा कुर्सियों की व्यवस्था करनी चाहिए। छोटे बच्चों के कुर्सी-टेबुल को विभिन्न रोचक आकृतियों में तैयार करवाया जा सकता है। जैसे- विभिन्न जनवरों, फुलों, फलों, पेड़ आदि की आकृति में इन फर्नीचरों को तैयार किया जा सकता है। इसके अलावे घन, घनाभ, शंकू तथा बेलन के आकार के फर्नीचर भी बनवाये जा सकते हैं। विद्यालय में लगे अलमीरा को पुस्तकालय का रूप दिया जा सकता है।
अतः फर्नीचर को इस प्रकार डिजाईन किया जाए ताकि वह किसी-न-किसी रूप में सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में मददगार साबित हो सके।
वर्ग कक्ष का सीखने-सिखाने के लिए सृजनात्मक प्रयोग:-
वर्ग-कक्ष सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का केन्द्र माना जाता है। बच्चों और शिक्षकों के बीच अन्तःक्रिया का केन्द्र वर्ग कक्ष है; यही वह स्थान है जहाँ अधिगम प्रक्रिया का एक बड़ा हिस्सा सम्पादित होता है। अतः विद्यालय प्रबंधन को चाहिए कि कक्षा-कक्ष को रोचक व सृजनात्मक बनाए ताकि सीखने-सिखाने की क्रिया को अधिक गतिशील बनाया जा सके।
इस क्रम में कुछ सुझाव निम्नवत् हैं :-
श्यामपट्ट के किनारों को सुन्दर ढ़ंग से सजाया जा सकता है।
वर्ग कक्ष में देशभक्त, महान दार्शनिकों, लेखकों आदि प्रेरणास्पद व्यक्तित्व के चित्र भी लगाए जाने चाहिए।
दीवार-चित्र भी बनाए जा सकते हैं। 
बच्चों का कोना’ नाम से एक भाग सुरक्षित रखा जाए जहाँ बच्चे अपनी कलाकृतियों को प्रदर्शित कर सके, इससे उनमें सृजनात्मक लेखन, चित्रकला आदि का भी विकास होगा।
वर्ग कक्ष में लगे पंखे को विभिन्न रंगों से रंगा जा सकता है।
अन्य उपकरणों का सृजनात्मक उपयोग :-
विद्यालय में उपलब्ध उपकरणों का सृजनात्मक एवं व्यावहारिक प्रयोग करके भवन के साथ-साथ इन उपकरणों के भी शैक्षिक मूल्यों को अधिकतम तक बढ़ाया जा सकता है।
विद्यालय में उपलब्ध विभिन्न उपकरणों का सृजनात्मक प्रयोग करके विद्यालय में सीखने-सिखाने के माहौल को और भी बेहतर बनाया जा सकता है। 
माइक्रोफोन एवं ध्वनिविस्तारक यंत्र के माध्यम से चेतना सत्र का संचालन तथा सूचनाओं को प्रेषण। 
रेडियो के माध्यम से आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले बच्चों के कार्यक्रम को सुनाया जा सकता है। 
नियमित रूप से भार मापने वाले मशीन से बच्चों प्रोफाईल पंजी में उनके बजन का आंकड़ा एकत्र करना। 
विभिन्न वाद्य-यंत्रों के द्वारा बच्चों को संगीत की जानकारी देना।
उपर्युक्त वर्णित सभी ऐसी गतिविधियां हैं जो विद्यालय के माहौल को सीखने-सिखाने के अनुरूप बनाती है।
ज्ञातव्य है कि बच्चे अपने विद्यालय के भौतिक पर्यावरण के साथ निरंतर अंतःक्रिया करते है तथापि इसके महत्व पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है। विद्यालय भवन, खेल का मैदान, वर्ग कक्ष, दीवार, प्रयोगशाला, फर्नीचर, अन्य उपकराणों के सामुहिक रूप को सीखने-सिखाने की गतिविधि में सृजनात्मक प्रयोग करना विद्यालय प्रबंधन की जिम्मेवारी है। अतः विद्यालय प्रबंधन को इस पर विचार करना चाहिए।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 की माने तो सरकार को चाहिए कि सीखने-सिखाने के उद्देश्य में भवन, मैदान, परिसर, दीवार आदि में अगर आमूल-चूल परिवर्तन नहीं किया जा सकता है तो कम-से-कम उसे नवीनीकृत अथवा सुधार तो किया ही जा सकता है ताकि उसे आकर्षक रूप प्रदान किया जा सके एवं बच्चों के जरूरतों को ध्यान में रखते हुए उसे सृजनात्मक रूवरूप प्रदान किया जा सके। इन सभी गतिविधियों में विद्यालय प्रधान की भूमिका निर्णायक साबित होता है क्योंकि वे इन चीजों को सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेवार हैं कि सभी छात्र/छात्राओं को सीखने में पूरी तरह से भाग लेने के लिए अवसर और सहायता मिले। ऐसा तभी संभव होगा जब संसाधनों का प्रबंधन प्रभावी ढ़ंग से और सीखने की प्रक्रिया को सुधारने का प्रयास स्पष्टता से किया जाय।
संदर्भः-
चित्र http://gyankriti.com  एवं Google से साभार।
000

रवि रौशन कुमार
शिक्षक
राजकीय उत्क्रमित माध्यमिक विद्यालय
माधोपट्टी, केवटी, दरभंगा (बिहार)
सम्पर्क नं0- 9708689580
ईमेल : info.raviraushan@gmail.com

Comments

Popular posts from this blog

बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में जन-संचार माध्यमों की भूमिका

व र्तमान समय में जन-संचार माध्यम एक बहुत ही सशक्त माध्यम है जिसका बच्चों के मन- मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है. रेडियो, टीवी, अखबार, पत्रिकाएं, कंप्यूटर, आदि ऐसे माध्यम हैं जिनके द्वारा कोई भी बात प्रभावपूर्ण तरीके से बच्चों के समक्ष प्रस्तुत की जा सकती है. इन माध्यमों का बच्चों पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के प्रभाव पड़ता है. जैसे इन माध्यमों के द्वारा विभिन्न प्रकार के मनोरंजक, सूचना व ज्ञान आधारित कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं. एक ओर जहां इन कार्यक्रमों से बच्चों में अपने आस-पास की दुनियां के विषय में समझ बढ़ती है वहीं कभी-कभी ये उन्हें संकीर्णता की ओर भी ले जाते है. साथ ही आवश्यकता से अधिक समय इन माध्यमों को देने से शारीरिक विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. अतः यह अति अवश्यक है कि बाल-विकास  में जन-संचार माध्यमों का न्यायसंगत तथा विवेकपूर्ण प्रयोग किया जाय. इस आलेख में बाल-विकास के संदर्भ में जन-संचार माध्यमों के प्रभावों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है. जन-संचार माध्यम : एक परिचय         जन-संचार (Mass-Communic...

प्लास्टिक वरदान या अभिशाप

         सभी वैज्ञानिक आविष्कारों के पीछे समाज कल्याण की भावना छिपी रहती है। दुनिया के तमाम आविष्कार जनहित के लिये ही होता है। परंतु प्रत्येक कृत्रिम सुख सुविधाओं के अपने लाभ और हानि होती है। जब किसी वस्तु या सुविधा के लाभ उसके हानि की तुलना में कई गुना अधिक होता है तब हम उन नवीन आविष्कार को अपना लेते हैं। कभी-कभी दूरगामी प्रभावों की चिंता किये बिना ही हम किसी नवीन आविष्कारों को सिर्फ इसलिये भी अपना लेते है क्योंकि वे हमारे श्रम, समय और पैसे की बचत करता है। प्लास्टिक का ही उदाहरण अगर  लिया जाय तो हम देखते हैं कि जब प्लास्टिक या पॉलीथिन आदि का इस्तेमाल प्रारम्भ हुआ था उस वक़्त यह किसी वरदान से कम नहीं था। धरल्ले से प्लास्टिक प्रयोग शुरू हो गया। रोजमर्रा के जीवन में प्लास्टिक ने अपनी पैठ बना ली। लोगों ने भी इसे हाथोंहाथ लेना शुरू किया। कपड़े और जूट के बने थैले लेकर चलने में शर्मिंदगी का एहसास होने लगा। लोग खाली हाथ बाजार जाते और प्लास्टिक के ढेर सारे थैलों में चीजें भर-भर कर घर लाने लगे थे। लेकिन समय के साथ-साथ पॉलीथिन के दुष्परिणाम भी सामने आने लगे। आज ये गम...

पर्यावरण अध्ययन के प्रति जन चेतना की आवश्यकता

*पर्यावरण अध्ययन के प्रति जनचेतना की आवश्यकता*       मनुष्य इस समय जिन भौतिक सुख सुविधाओं और सम्पदाओं का उपभोग कर रहा है, वे सभी विज्ञान एवं तकनीकी ज्ञान के वरदान है, ‘‘लेकिन यदि विज्ञान एवं तकनीकी ज्ञान का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग नहीं किया गया तो इस वरदान को अभिशाप में बदलते देर नहीं लगेगी। ऊर्जा उत्पादनों के संयंत्र, खनन, रासायनिक एवं अन्य उद्योग आज के मनुष्य के कल्याण के लिए अपरिहार्य बन गये हैं। लेकिन ये ही चीजें हमारी बहुमूल्य सम्पदाओं, यथा, वन, जल, वायु एवं मृदा आदि को अपूर्णीय क्षति भी पहुँचा सकती है। पर्यावरणीय अवनयन के खतरे नाभकीय दुर्घटनाओं के समकक्ष खतरनाक है, लेकिन इस भय से औद्योगीकरण एवं विकास योजनाओं को बन्द नहीं किया जा सकता। इसलिए हम सभी को एक मध्यम मार्ग अपनाने की जरूरत है। इस मध्यम मार्ग का अर्थ है सम्पोषित अथवा निर्वहनीय विकास की नीति को अपनाना। मनुष्य में निर्वहनीय विकास एवं उसकी जीवनषैली को अपनाने की समझ तो सम्यक पर्यावरणीय अध्ययन के प्रति जनचेतना को प्रबुद्ध करने से ही उत्पन्न हो सकती है।’’       पर्यावरण अध्ययन के प्रति जन...