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पर्यावरण शिक्षा की प्रासंगिकता

      भारतीय सभ्यता के आरम्भ से ही पर्यावरण को सुरक्षित रखने की जागरूकता लोगों में मौजूद थी। वैदिक एवं वैदिककाल के बाद का इतिहास इस बात का साक्षी है लेकिन आधुनिक काल में, विशेष रूप से स्वतंत्रता के बाद से, आर्थिक प्रगति को उच्च प्राथमिकता मिलने के कारण, पर्यावरण कुछ कम महत्त्वपूर्ण स्थान पर रह गया। केवल 1972 में पर्यावरणीय योजना एवं सहयोग के लिये राष्ट्रीय कमेटी के गठन के लिये कदम उठाए गए जो धीरे-धीरे पर्यावरण का अलग विभाग बना और 1985 में यह पूर्णरूप से पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के रूप में परिवर्तित हुआ। वर्तमान में इस मंत्रालय को पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के नाम से जाना जाता है। शुरूआत में भारत के संविधान में पर्यावरण को बढ़ावा देने या उसके संरक्षण के लिये किसी प्रकार के प्रावधान नहीं थे। लेकिन 1977 में हुए 42वें संविधान संशोधन में कुछ महत्त्वपूर्ण धाराएँ जोड़ी गई जो सरकार पर एक स्वच्छ एवं सुरक्षित पर्यावरण प्रदान करने की जिम्मेदारी सौंपती है।

    प्रत्येक मनुष्य यदि ये अच्छी प्रकार से समझे कि किये गये कार्यो से ही पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। हमारी पृथ्वी जो कि प्राकृतिक संसाधनों का भंडार है रिक्त होती जा रही है। भविष्य की बात तो छोड़े वर्तमान जीवन भी कठिन हो गया है इसलिए यह सम्भव कि एक तरह से नष्ट हो रही पृथ्वी की स्थिति पर कुछ नियंत्रण किया जा सकता है और उसे विनाश से बचाया जा सकता है।

    पर्यावरण  शिक्षा वस्तुतः विश्व समुदाय को पर्यावरण सम्बन्धी दी जाने वाली वह शिक्षा है जिससे समस्याओं से अवगत होकर उनका समाधान ढूँढने और भविष्य में उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों की रोकथाम के लिये आवश्यक जानकारी प्राप्त होती है, जिसके आधार पर व्यक्तिगत या सामूहिक स्तर पर पर्यावरण समस्याओं से निजात पाने का मार्ग ढूँढा जा सकता है और भविष्य की कठिनाइयों को जाना जा सकता है।

    पर्यावरण संकट व समस्याओं की व्यापकता व विस्तार से ग्रस्त व भयभीत सम्पूर्ण मानवता को बचाने, उसकी रक्षा करने, व भविष्य को सुखी बनाने हेतु पर्यावरण शिक्षा आज की प्राथमिक आवश्यकता है। यदि इस शिक्षा की उपेक्षा कर दी जाये तो जन-जन में पर्यावरण अवबोध व गुणवत्ता बनाये रखने की चेतना जागृत नहीं होगी और पर्यावरण व पारिस्थितिकीय असन्तुलन निरन्तर बढ़ता जायेगा

    मानव, तकनीकी विकास एवं पर्यावरण के अंतर्संबंधों से जो पारिस्थितिकी चक्र बनता है और वह संपूर्ण क्रिया-कलापों और विकास को नियंत्रित करता है। यदि इनमें संतुलन रहता है तो सब कुछ सामान्य गति से चलता रहता है, किंतु किसी कारण से यदि इनमें व्यतिक्रम आता है तो पर्यावरण का स्वरूप विकृत होने लगता है और उसका हानिकारक प्रभाव न केवल जीव जगत् अपितु पर्यावरण के घटकों पर भी होता है।


©रवि रौशन कुमार, 

शिक्षक, रा.म. विद्यालय, माधोपट्टी, दरभंगा ।


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