आने वाली पीढ़ी को करना होगा भारी संकटों का सामना?

जैसा परिवेश हमें अपने पूर्वजों से मिला था क्या आने वाली पीढ़ी को हम वैसा ही परिवेश सौंपने को तैयार हैं? उत्तर निश्चित तौर पर 'ना' ही होगा, क्योंकि हमने विकास के नाम पर इतने गैर जिम्मेदार कार्यों को अंजाम दिया है जिससे यह पृथ्वी रहने लायक नहीं रह गयी है। ग्लोबल वॉर्मिंग के फलस्वरूप जलवायु परिवर्तन तथा इससे उत्पन्न विभिन्न समस्याएं यथा संकटग्रस्त प्रजातियाँ, जल संकट, कार्बन उत्सर्जन, विभिन्न प्रकार की बीमारियां आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त हिम स्खलन, समुद्री चक्रवात, बाढ़ और सूखे की बारम्बारता में वृद्धि आदि विश्व के लिए चुनौती बन चुकी है। दुनियां भर के देश इन खतरों से चिंतित नजर आ रही है। सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर समय - समय पर इन समस्याओं के निदान हेतु प्रयास भी किए जा रहे हैं। विगत तीन दशकों से दुनियां भर में पर्यावरण संरक्षण को लेकर चर्चाएं हो रही है। सन् 1992 में प्रथम पृथ्वी सम्मेलन से लेकर COP-13 की हालिया बैठक तक विभिन्न पर्यावरणीय मुद्दों पर चर्चाएं हुई हैं।

विकास की प्रक्रिया में मानव ने अपने पर्यावरण को इतना क्षति पहुंचाया है कि जिसे ठीक करने के लिए विस्तृत सामूहिक प्रयास की अवश्यकता है। सतत् विकास की अवधारणा को मूर्त रूप देना होगा। पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा सिर्फ़ किताबों और विभिन्न संगोष्ठियों के विषय तक सीमित न रहे बल्कि इसे एक क्रांति का रूप देना समय की मांग है। आम जन में पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरूकता लाने और उनके प्रयासों को प्रोत्साहित करने की भी आवश्यकता है।

जिस प्रकार औद्योगिक क्रांति और तदुपरांत उपनिवेशवाद के कारण बड़े पैमाने पर उद्योग, खनन, परिवहन-संचार व्यवस्था, सहित अन्य आधारभूत संरचना के निर्माण प्रक्रिया के कारण बड़े पैमाने पर वृक्षों की कटाई हुए, इसके परिणाम अब दिखने लगे हैं। मानसून की अनियमितता के कारण कृषि चक्र प्रभावित हुआ है। कई फसलों की प्रजाति को उन्नत बनाने की कोशिश में उसके नैसर्गिक गुणों के साथ छेड़-छाड़ किए जा रहे हैं।

वनों के सिकुड़ने से वन्य जीवों पर भी खतरा मंडराने लगा है। वन्य जीवों की कई प्रजातियाँ संकटापन्न हैं। इनके संरक्षण हेतु जैव मंडल रिजर्व, अभयारण्य, जैविक उद्यान आदि के माध्यम से सरकार प्रयासरत है। लेकिन बावजूद इसके यह प्रश्न अभी भी बना हुआ है कि वृक्षों की कटाई कब रुकेगी। ताजा मामला मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के बकस्वाहा जंगल की है जहां हीरे की खान होने के प्रमाण मिले हैं। अब इस हीरे को निकालने हेतु ढाई लाख से भी अधिक वृक्षों की आहुति पड़ने वाली है। इसके विरोध में देश भर के पर्यावरण कार्यकर्ता एक जुट हो रहे हैं।

     वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कोविड-19 जैसे महामारियों ने स्पष्ट संकेत दे दिया हैं कि प्रकृति के नियमों का उल्लंघन मानव के लिए किस स्तर तक आत्मघाती सिद्ध हो सकता है। अतः अब सिर्फ विचार-विमर्श से काम नहीं चलने वाला है अपितु वक्त है एक्शन का।


© रवि रौशन कुमार 

शिक्षक, रा.उ.मा. विद्यालय, माधोपट्टी, दरभंगा ।
      

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