विश्व पृथ्वी दिवस: प्रकृति से पुनः जुड़ने का आह्वान
प्रस्तावना
हर साल 22 अप्रैल को विश्व
पृथ्वी दिवस (Earth Day) के रूप में मनाया जाता है। यह दिन न
केवल हमारी धरती माता के प्रति श्रद्धा और सम्मान प्रकट करने का अवसर है, बल्कि यह हमें यह सोचने के लिए भी विवश करता है कि हमने आधुनिकता की दौड़
में किस तरह से अपने प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया है। आज जबकि जलवायु
परिवर्तन, जैव विविधता का संकट, वनों
की कटाई, प्रदूषण और पर्यावरणीय असंतुलन जैसे संकट हमारे
सामने खड़े हैं, पृथ्वी दिवस एक चेतावनी और अवसर दोनों है –
चेतावनी मानव जाति के आत्मविनाश की ओर बढ़ते कदमों की, और
अवसर इस विनाश की दिशा को पलटने का।
विश्व पृथ्वी दिवस का इतिहास
1970 में
अमेरिका के पर्यावरण कार्यकर्ता गेलॉर्ड नेल्सन की पहल पर पहला पृथ्वी दिवस मनाया
गया। यह उस समय की बात है जब औद्योगीकरण और विकास के नाम पर पर्यावरणीय क्षरण अपने
चरम पर था। 22 अप्रैल को इसलिए चुना गया क्योंकि यह दिन
अमेरिका में विद्यार्थियों के लिए एक ऐसा समय था जब वे फाइनल परीक्षा के दबाव में
नहीं होते और छुट्टियों पर भी नहीं होते। धीरे-धीरे यह दिन एक वैश्विक आंदोलन में
परिवर्तित हो गया। आज पृथ्वी दिवस को 190 से अधिक देशों में
करोड़ों लोग मनाते हैं।
आज की दुनिया तकनीक और उपभोग पर आधारित
है। मनुष्य ने विज्ञान और तकनीक के ज़रिए अपने जीवन को सरल और सुविधाजनक तो बना
लिया है, लेकिन इसी प्रक्रिया में वह अपने पर्यावरण को भूलता चला गया। हम प्रकृति
से जितना दूर हो रहे हैं, उतना ही संकट हमारे नज़दीक आता जा
रहा है।
- ग्लोबल
वॉर्मिंग के कारण ध्रुवीय बर्फ पिघल रही
है।
- समुद्र
का जल स्तर बढ़ रहा है।
- प्राकृतिक
आपदाएं जैसे बाढ़, सूखा, चक्रवात सामान्य होती जा रही हैं।
- वन्यजीवों
की प्रजातियाँ तेजी से विलुप्त हो रही हैं।
- वायु, जल,
और भूमि प्रदूषण मानवीय जीवन
को विषैला बना रहे हैं।
इन सबके बीच पृथ्वी दिवस हमें चेताता है
कि हम अपनी जीवनशैली और सोच में बदलाव लाएं, नहीं तो वह दिन दूर
नहीं जब धरती पर जीवन असंभव हो जाएगा।
पृथ्वी और भारतीय परंपरा
भारतीय संस्कृति में पृथ्वी को माँ माना
गया है — "वसुधैव
कुटुम्बकम्" का सिद्धांत हमें यह सिखाता है
कि समस्त पृथ्वी हमारा परिवार है। हमारी परंपराओं में वृक्षों, नदियों, पर्वतों
और पशु-पक्षियों की पूजा की जाती रही है। ‘भूमि सूक्त’,
‘प्रकृति संरक्षण’ जैसे वैदिक मंत्रों में भी धरती के प्रति
कृतज्ञता और संरक्षण का भाव दिखाई देता है।
लेकिन आज का भारत – जो कभी
पर्यावरण-संरक्षण की प्रेरणा रहा करता था – आधुनिकता की दौड़ में सबसे बड़े
पर्यावरणीय संकटों का सामना कर रहा है।
शिक्षा और पर्यावरण चेतना
अगर हमें पृथ्वी को बचाना है, तो इसकी शुरुआत शिक्षा
से करनी होगी। पर्यावरणीय शिक्षा को केवल एक विषय न मानते हुए, इसे जीवन का अभिन्न अंग बनाना होगा। बच्चों को प्रकृति से जोड़ना होगा –
उन्हें पौधे लगाने, जल संरक्षण, अपशिष्ट
प्रबंधन, और सतत उपभोग की सीख देनी होगी।
क्या करें स्कूल और कॉलेजों में?
- हर छात्र एक पौधा लगाए और उसकी देखभाल करे।
- विज्ञान और सामाजिक विज्ञान में पर्यावरणीय समस्याओं की
चर्चा हो।
- "ग्रीन क्लब" और "इको क्लब" की स्थापना की जाए।
- स्थानीय नदियों, तालाबों, वनों और प्रजातियों के बारे में पढ़ाया जाए।
जनसहभागिता की आवश्यकता
पृथ्वी को बचाने का काम केवल सरकार या
पर्यावरणविदों का नहीं है, बल्कि इसमें हर नागरिक की भागीदारी आवश्यक है। जब तक आम
लोग पर्यावरणीय बदलाव को अपनी समस्या नहीं मानेंगे, कोई बड़ा
परिवर्तन संभव नहीं।
हम क्या कर सकते हैं?
- अपनी खपत पर नियंत्रण रखें – "कम खरीदो, बार-बार प्रयोग करो।"
- प्लास्टिक का प्रयोग बंद करें।
- जल और बिजली की बचत करें।
- अपने घर, मोहल्ले में
वृक्षारोपण करें।
- साइकल और सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करें।
तकनीक का सकारात्मक उपयोग
जहाँ एक ओर तकनीक ने पर्यावरण को नुकसान
पहुँचाया है, वहीं यह समाधान का हिस्सा भी बन सकती है। हरित ऊर्जा, सोलर पैनल, वाटर हार्वेस्टिंग, ई-वाहन, डिजिटल जागरूकता जैसे कदम पर्यावरणीय
संरक्षण में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
सरकारें भी अब कार्बन न्यूट्रल नीतियाँ
बना रही हैं। लेकिन केवल नीति नहीं, उसका ज़मीनी
क्रियान्वयन भी उतना ही ज़रूरी है।
वैश्विक सहयोग और संधियाँ
धरती को बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय
सहयोग आवश्यक है। कई वैश्विक संधियाँ और प्रयास इसी दिशा में हैं:
- पेरिस
समझौता (2015) – वैश्विक तापमान वृद्धि को 2°C
से कम रखने का लक्ष्य।
- संयुक्त
राष्ट्र की SDGs (सतत विकास लक्ष्य) – जिनमें जलवायु, जल, भूमि,
वनों और जैव विविधता की रक्षा शामिल है।
- COP सम्मेलनों में लिए गए निर्णय, जो देशों को जवाबदेह बनाते हैं।
लेकिन इनका असर तभी होगा जब दुनिया के
शक्तिशाली देश अपने आर्थिक हितों से ऊपर उठकर धरती के दीर्घकालीन भविष्य को
प्राथमिकता दें।
युवा पीढ़ी की भूमिका
आज की युवा पीढ़ी को केवल उपभोक्ता नहीं, ‘पर्यावरण
योद्धा’ बनना होगा। ग्रेटा थनबर्ग, लिसिप्रिया कंगुजम जैसे
उदाहरण यह दिखाते हैं कि किशोर और युवा भी विश्व मंच पर पर्यावरण की आवाज़ बुलंद
कर सकते हैं। सोशल मीडिया के ज़रिए पर्यावरणीय आंदोलनों को बल मिल रहा है।
छात्रों में यह भावना विकसित की जानी
चाहिए कि प्रकृति के प्रति करुणा और जिम्मेदारी केवल भावनात्मक नहीं, वैज्ञानिक और
नैतिक कर्तव्य भी है।
कोविड-19 और पर्यावरण का संबंध
कोविड-19 महामारी ने एक ओर जहाँ मानव जीवन को प्रभावित किया, वहीं दूसरी ओर यह एक चेतावनी भी थी। जब मनुष्य घरों में बंद थे, तब नदियाँ साफ हुईं, वायु प्रदूषण घटा, पशु-पक्षी निर्भय घूमते देखे गए। यह एक तरह का प्रकृति का उत्तर था – “जब तुम रुकते हो, तो मैं सांस ले पाती हूँ।” यह उदाहरण बताता है कि अगर हम सीमित और संतुलित जीवन जिएं, तो पृथ्वी भी स्वयं को पुनः स्वस्थ बना सकती है।
निष्कर्ष
विश्व पृथ्वी दिवस कोई एक दिन की रस्म
नहीं, बल्कि यह एक चेतना है – जो हमें हर दिन यह याद दिलाती है कि हम पृथ्वी के
मालिक नहीं, रक्षक हैं। यह हमारा दायित्व है कि हम आने वाली
पीढ़ियों को एक स्वस्थ, सुरक्षित और सुंदर धरती सौंपें।
प्रकृति ने हमें जीवन दिया है – अब
हमारी बारी है उसे बचाने की। जब तक धरती है, तभी तक हम हैं। यह दिन
हमें प्रेरित करे कि हम हर दिन को पृथ्वी दिवस समझें और अपनी आदतों में बदलाव लाकर
धरती माँ के प्रति अपने प्रेम और जिम्मेदारी को निभाएं।
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