भारत जैसे विविधतापूर्ण लोकतांत्रिक देश में सरकार की शक्ति और सेवा का प्रसार केवल केन्द्र और राज्यों तक सीमित नहीं हो सकता। देश की असली ताक़त गाँवों में निहित है, और इसीलिए संविधान निर्माताओं ने “ग्राम स्वराज” की कल्पना की थी। इस सोच को वास्तविकता में बदलने का कार्य हुआ पंचायती राज प्रणाली के माध्यम से, जिसे 73वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संवैधानिक मान्यता दी गई। इसी ऐतिहासिक उपलब्धि के उपलक्ष्य में हर वर्ष 24 अप्रैल को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस के रूप में मनाया जाता है।
पंचायती राज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत में पंचायती व्यवस्था की जड़ें
प्राचीन सभ्यता में गहराई तक फैली हुई हैं। वेदों और स्मृतियों में
"सभा" और "समिति" जैसे शब्दों का उल्लेख मिलता है, जो ग्रामीण
स्वशासन की इकाइयों को दर्शाते हैं। गाँव की समस्याओं का समाधान, आपसी विवादों का निपटारा और सामाजिक गतिविधियों का संचालन ग्राम स्तर पर
ही किया जाता था।
हालाँकि, औपनिवेशिक शासन के
दौरान इस परंपरा को गंभीर क्षति पहुँची और स्वशासन की परंपरा कमजोर हो गई।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान सभा के सदस्यों ने इस बात को समझा कि भारत
जैसे विशाल और विविध देश में प्रशासन को जमीनी स्तर तक पहुँचाने के लिए
विकेंद्रीकरण आवश्यक है।
बलवंत राय मेहता समिति की भूमिका
1957 में नियुक्त बलवंत
राय मेहता समिति ने भारत में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की आवश्यकता पर बल देते हुए
त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली की संस्तुति की। इस प्रणाली में शामिल थीं:
- ग्राम
पंचायत (गाँव स्तर पर)
- पंचायत
समिति (ब्लॉक स्तर पर)
- जिला
परिषद (जिला स्तर पर)
राजस्थान पहला राज्य था जिसने 1959 में इस
प्रणाली को लागू किया। धीरे-धीरे अन्य राज्यों ने भी इसे अपनाया, परंतु ये संस्थाएँ संवैधानिक दर्जा न होने के कारण न तो स्थायित्व प्राप्त
कर पाईं, न ही पर्याप्त संसाधन।
73वां संविधान संशोधन अधिनियम,
1992
पंचायती राज व्यवस्था को वास्तविक शक्ति
और मान्यता 1992 में 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से
प्राप्त हुई। यह अधिनियम 24 अप्रैल 1993 से प्रभावी हुआ और इसे भारतीय लोकतंत्र की एक ऐतिहासिक उपलब्धि माना गया।
इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ:
1. संविधान में नया भाग IX जोड़ा
गया (अनुच्छेद 243 से 243-O तक)।
2. ग्राम सभा की संवैधानिक मान्यता।
3. त्रिस्तरीय
ढाँचे का निर्धारण — ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, जिला परिषद।
4. पंचायतों का पाँच वर्ष के लिए
चुनाव अनिवार्य।
5. अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था।
6. राज्य वित्त आयोग और राज्य
चुनाव आयोग की स्थापना।
7. योजनाओं की योजना बनाना और उनका
क्रियान्वयन पंचायतों के माध्यम से।
8. पंचायतों को
वित्तीय शक्तियाँ देने का प्रावधान।
राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस की शुरुआत
भारत सरकार द्वारा 2010 में 24
अप्रैल को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस के रूप में घोषित किया गया।
इसका उद्देश्य न केवल इस ऐतिहासिक संवैधानिक उपलब्धि को याद करना है, बल्कि जमीनी स्तर पर लोकतंत्र की सफलता, चुनौतियों
और समाधान पर राष्ट्रव्यापी संवाद को बढ़ावा देना भी है।
पंचायती राज की वर्तमान भूमिका
आज, देश में 2.5 लाख से अधिक पंचायतें, 30 लाख से अधिक निर्वाचित
सदस्य और लाखों महिलाओं की भागीदारी — पंचायती राज को विश्व की सबसे बड़ी
लोकतांत्रिक संस्था बनाती है। पंचायतें अब केवल नल-जल योजना या रास्ते बनाने तक
सीमित नहीं, बल्कि शिक्षा, पोषण,
स्वास्थ्य, स्वच्छता, महिला
सशक्तिकरण, डिजिटल साक्षरता और जलवायु संरक्षण जैसे बहुआयामी
कार्यों में जुटी हुई हैं।
स्वच्छ भारत मिशन, पानी समिति, हर घर जल योजना, डिजिटल ग्राम योजना, राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान, जैसे कई कार्यक्रम
पंचायतों के माध्यम से ही ज़मीन पर पहुँचते हैं।
पंचायती राज और महिला सशक्तिकरण
73वें संशोधन ने पंचायतों
में 33% आरक्षण का प्रावधान किया था, जिसे
कई राज्यों ने बढ़ाकर 50% तक कर दिया। इससे लाखों महिलाओं ने
निर्णय प्रक्रिया में भाग लेना शुरू किया। यह न केवल उनकी सामाजिक स्थिति में
सुधार लाया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए रोल मॉडल भी
तैयार किए।
“मुखिया पति” जैसे चलन की आलोचना जरूर होती है, लेकिन अब कई
उदाहरण सामने आ रहे हैं जहाँ महिला प्रतिनिधि अपनी व्यक्तिगत क्षमता से पंचायतों
का संचालन कर रही हैं।
चुनौतियाँ: जमीनी सच्चाइयाँ
1. राजनीतिक हस्तक्षेप— कई बार स्थानीय
नेता या राजनीतिक दलों का प्रभाव पंचायतों की स्वायत्तता को कम करता है।
2. शिक्षा और प्रशिक्षण की कमी—निर्वाचित
प्रतिनिधियों को आवश्यक जानकारी और क्षमता नहीं होती जिससे नीतियों का प्रभावी
क्रियान्वयन हो सके।
3. वित्तीय निर्भरता— पंचायतें अभी भी राज्य
सरकारों पर आर्थिक रूप से निर्भर हैं।
4. डिजिटलीकरण की असमानता— तकनीकी साधनों
की कमी से कई पंचायतें डिजिटल पहल में पीछे रह जाती हैं।
5. भ्रष्टाचार और पारदर्शिता की
कमी— फंड के दुरुपयोग की घटनाएँ चिंता का विषय हैं।
संभावनाएँ और भविष्य की दिशा
1. डिजिटल पंचायतें— ई-ग्रामस्वराज,
मोबाइल ऐप्स, और ऑनलाइन मॉनिटरिंग से
पारदर्शिता और गति आएगी।
2. क्षमता निर्माण— प्रतिनिधियों के
लिए नियमित प्रशिक्षण, कार्यशालाएँ, और
सफलता की कहानियाँ साझा करना आवश्यक है।
3. ग्राम पंचायत पुस्तकालय और
सूचना केंद्र— सूचनाओं और योजनाओं की पहुँच गाँव तक सुनिश्चित करना।
4. युवा भागीदारी— ग्राम सभा में
युवाओं की सक्रिय भूमिका से बदलाव की गति बढ़ेगी।
5. ग्राम विकास योजनाओं में नवाचार— स्थानीय
समस्याओं के लिए स्थानीय समाधान उत्पन्न करना।
शिक्षकों और
छात्रों की भूमिका
शिक्षण संस्थानों में लोक प्रशासन, नागरिक शास्त्र, और पंचायती राज प्रणाली पर परियोजनाएँ, निबंध, और मॉडल
ग्राम सभाएँ आयोजित कराई जा सकती हैं। इससे नई पीढ़ी में लोकतांत्रिक चेतना का
विकास होगा।
निष्कर्ष
राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस
महज़ एक तारीख नहीं, बल्कि लोकतंत्र के सबसे ज़मीनी स्वरूप को समझने, अपनाने और आगे बढ़ाने का दिन है। यह वह मंच है जहाँ आम नागरिकों को अपनी
समस्याओं पर बोलने, योजनाएँ तय करने और परिवर्तन लाने का
अधिकार प्राप्त होता है। जब तक गाँव सशक्त नहीं होंगे, तब तक
राष्ट्र समृद्ध नहीं बन सकता।
“लोकतंत्र तभी सफल होगा जब वह आम जन तक
पहुँचेगा — और पंचायती राज, लोकतंत्र को घर-घर पहुँचाने का
सशक्त माध्यम है।”
***
Copyright :- Author (Ravi Raushan Kumar)
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