महात्मा गांधी की दृष्टि में शिक्षक-शिक्षार्थी संबंध

शिक्षक-शिक्षार्थी संबंधों के विषय में गाँधी जी भारत के पारंपरिक अवधारणा के सर्मथक रहे। उन्होंने कहा था, "हमारे यहाँ एक भी अध्यापक आदर्श अध्यापक रह जाए, एक भी विद्यार्थी आदर्श विद्यार्थी रह जाए तो मैं समझेंगा कि हमें सफलता मिली है।"

      भारत में गुरु तथा शिष्य दोनों के लिए कठोर नियमों का पालन करने की परंपरा रही है। ये नियम कुछ इस प्रकार व्यवस्थित किए जाते रहे हैं कि शिक्षक-शिक्षार्थी दोनों ही अनुशासित रहें। शिक्षक अपने शिष्य से अगाध प्रेम रखे व शिष्य अपने गुरु पर अगाध श्रद्धा इस प्रेम और श्रद्धा का मूल, आदर्श व्यक्तित्व ही है। एक छात्र अपने गुरु को आदर की दृष्टि से तभी देख सकेगा जब उसका आचरण, उसका व्यक्तित्व कुछ विशिष्ट हो, अनुकरणीय हो। यही विशिष्ठता एक शिक्षक को जनसामान्य से पृथक कर कुछ विशिष्ट होने की माँग करती है। यही तथ्य शिक्षार्थी के लिए भी है। शिक्षक अपने छात्र से प्रेम करे, यह अति आवश्यक है। किंतु इस प्रेम का पात्र बनने हेतु उसे भी कुछ प्रयास करने होंगे। शिक्षार्थी की आज्ञाकारिता, उसका अनुशासन व ज्ञान की प्राप्ति की इच्छा बड़ी सहजता से उसे उसके गुरु का प्रेम पात्र बना सकेगी। गुरु व शिष्य के बीच सामंजस्यपूर्ण मधुर संबंध स्थापित हो सकेंगे। शिक्षण प्रभावपूर्ण हो सकेगा। गाँधी जी गुरु-शिष्य संबंध के बीच की इस महत्वपूर्ण कड़ी को भली-भाँति जानते थे। यही कारण है कि उन्होंने इस संदर्भ में भारत की पारंपरिक अवधारणा का सर्मथन किया और शिक्षक-शिक्षार्थी के मध्य पिता-पुत्र के समान संबंधों को स्वीकृति दी। उन्होंने कहा भी था- "मैं गुरु-भक्ति को मानने वाला हूँ। मगर हर एक शिक्षक गुरु नहीं हो सकता। गुरु-चेले का नाता आध्यात्मिक और अपने आप पैदा होता है। वह बनावटी नहीं होता। ऐसे गुरु आज भी हिंदुस्तान में मौजूद हैं (यह चेतावनी देने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि यहाँ मैं मोक्ष दिलाने वाले गुरु का जिक्र नहीं करता) ऐसे गुरु की खुशामद हो ही नहीं सकती। ऐसे गुरु के लिए आदर स्वाभाविक ही होता है। गुरु का प्रेम भी वैसा ही होता है। इसलिए एक देने को और दूसरा लेने को हमेशा तैयार ही रहता है। वैसे मामूली ज्ञान तो हम सभी से लेते हैं। एक बढ़ई से जिसके साथ मेरा कोई भी संबंध न हो, उसके दुर्गुण या बुराइयाँ जानते हुए भी मैं बहुत कुछ ले सकता हूँ। मैं जैसे दुकानदार के यहाँ से सौदा खरीदता हूँ, वैसे ही बढ़ईगिरी का ज्ञान खरीद लेता हूँ। हाँ यहाँ भी खास तरह की श्रद्धा जरूरी है। जिस बढ़ई से मैं बढ़ईगिरी का ज्ञान लेना चाहता हूँ। उसके बढ़ईगिरी के ज्ञान के बारे में मुझे श्रद्धा न हो तो यह ज्ञान मुझे नहीं मिल सकता। गुरु भक्ति दूसरी ही चीज है। जहाँ चरित्र बनाना शिक्षा का विषय है, वहाँ गुरु-शिष्य का संबंध निहायत जरूरी है और अगर वहाँ शुद्ध गुरुभक्ति न हो, तो चरित्र बन नहीं सकता।"

       हमारी शिक्षा का मूल आधार हमारा चरित्र ही तो है, पुस्तकीय ज्ञान से लदे-फंद हमारे मन-मस्तिष्क को यदि संतुलन का ज्ञान न हो तो सीखा गया ज्ञान विनाश का कारण भी बन सकता है। संतुलन, उत्तम चरित्र से स्वतः प्राप्त होगा। गाँधी जी आदर्श शिक्षक के सान्निध्य में, आदर्श गुरु-शिष्य संबंधों के बीच सशक्त व्यक्तित्व व उत्तम चरित्र का विकास संभव मानते हैं।

        पठन-पाठन के बीच बालक के मनोवैज्ञानिक पक्ष की भी उन्होंने अनदेखी नहीं की और इस बात की वकालत की, कि शिक्षक बालक पर अतिरिक्त दबाव न बनाए, उसकी स्वतंत्रता का हनन न करे। संबंधित कथन देखें- "असली चीज की रक्षा होती हो, तो भले ही विद्यार्थियों की आजादी सोलहों आने बनी रहे और शिक्षक इतने निष्पक्ष रहें कि वर्ग में आकर सो जाएँ। विद्यार्थियों की आजादी की रक्षा करने वाले स्वतंत्र शिक्षक विद्यार्थियों में घुल-मिल जाने की शर्त पर जैसा चाहें कर सकते हैं।"

       एक छोटे बच्चे को सदैव शुद्ध व निर्मल अंतर्मन का स्वामी मानते हुए उन्होंने बताया कि हम एक बालक से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। उन्होंने कहा था- "जीवन का बड़े से बड़ा पाठ हम बुर्जुगों और विद्वानों से नहीं, बल्कि जिन्हें अज्ञानी माना जाता है उन बालकों से सीख सकते हैं।"

        महात्मा गाँधी ने अपने कार्यों, अपने संदेशों के माध्यम से भारत देश में एक आचार्य का दर्जा ही तो प्राप्त किया था। स्वतंत्रता आंदोलन का लक्ष्य अवश्य राजनीतिक था, किंतु इस आंदोलन के माध्यम से उन्होंने जिस जीवन-दर्शन को हमारे सामने रखा, जो जीवनशैली व जीवन जीने की दिशा वे हमें दिखाते रहे। वह कार्य एक आचार्य का ही था। उनके द्वारा स्थापित आश्रमों में किये गए शिक्षण संबंधी प्रयोग में भी उनकी भूमिका एक गुरु की रही। स्वयं के द्वारा स्थापित उच्च नैतिक, चारित्रिक आदर्शों द्वारा वह समाज में सम्मानीय दर्जा हासिल कर सके थे। अतः उन्होंने जब कभी भी शिक्षक के व्यक्तित्व उसके आदर्शों की बात की तो उच्च नैतिक आदर्शों को सर्वोपरि रखा। उन्होंने ये बातें सिर्फ कही ही नहीं, बल्कि अपने स्वयं के जीवन में उन्हें चरितार्थ भी किया। आने वाले समय में वह आधुनिकता की धारा में स्वयं के मूलभूत आधारों के छिन्न-भिन्न होने की आशंका को जान सके थे। अतः जीवन के अनेक पहलुओं के साथ-साथ शिक्षक-शिक्षार्थी संबंधों के विषय में अपनी खुद की मौलिकता को सहेजे रखने की वकालत करते रहे।

       हम अपनी वर्तमान शिक्षा पद्धति में नवीन व्यवस्थाओं के साथ शिक्षा की महत्वपूर्ण कड़ी शिक्षक-शिक्षार्थी संबंधों के विषय में गाँधी जी के द्वारा स्थापित मूल्यों को स्थापित कर सकारात्मकता ही प्राप्त करेंगे। शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य बालक के व्यक्तित्व को सुंदर लय में साधना ही तो है। अनुशासन की सधी लय में इसे प्राप्त करना सहज है। यही हमारा लक्ष्य है, यही हमारी दिशा भी। परिवर्तन के वेग में नई व्यवस्थाओं को स्वीकार करने की दिशा में इस बात की आवश्यकता नहीं दिखती कि हम कुछ पुराने किंतु विशिष्ट को नष्ट कर दें। कुछ नया हासिल करने की कीमत हम अपने पुराने विशिष्ट को धूमिल कर तो न चुकाएँगे। यदि ऐसा किया तो नफा कम और नुकसान ज्यादा होगा। हिसाब कभी भी ठीक नहीं बैठेगा। लाभ तो तब है जब हम नवीनता को हासिल करें और अपनी खुद की विशिष्टता को सहेज भी सकें।

        गुरु-शिष्य संबंधों के विषय में पारंपरिक अवधारणा का सर्मथन कर गाँधी जी नफे-नुकसान के नाप-तोल को संयोजित करते रहे। हम अपनी आज की शिक्षा व्यवस्था में अवश्य ही इन व्यवस्थाओं को समायोजित कर न केवल शिक्षक को समाज में सम्मानजनक दर्जा दिला सकेंगे वरन शिक्षार्थी को एक ऐसी ताकतवर उँगली भी पकड़ा सकेंगे, जिसके दिशा-निर्देश में वह अपने जीवन की ऊँचाई को देख सकेगा। सहजता से उस ओर बढ़ सकेगा।


सन्दर्भ

1. मोहनदास करमचंद गांधी (2008), मेरे सपनों का भारत, राजपाल एंड संस, दिल्ली 

2. रश्मि श्रीवास्तव (2018), महात्मा गांधी का शिक्षा-चिंतन, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत 

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