ओडिशा और वाराणसी की मेरी यात्रा
सकरी जंक्शन से सुबह साढ़े 6 बजे हमारी ट्रेन थी जयनगर–पुरी एक्सप्रेस। तारीख थी 15 नवंबर 2025। प्लेटफ़ॉर्म पर कोच की स्थिति का पता पहले से चल जाने से यह सुविधा हुई कि ट्रेन के रुकने के बाद अधिक दौड़-भाग नहीं करनी पड़ी। हमारी सीटें A-2 कोच में थीं। हम सपरिवार ट्रेन में सवार हुए और यहीं से शुरू हुई ओडिशा की ओर हमारी यात्रा।
मेरे दोनों बच्चों की यह पहली रेल यात्रा थी, इसलिए उनका उत्साह देखते ही बनता था। वे पूरे समय कुछ न कुछ पूछते, इधर-उधर झाँकते और हर नए स्टेशन को देखकर रोमांचित हो उठते। उनकी चहल-कदमी और खुशी देखकर हम सबको भी खूब आनंद आ रहा था। विभिन्न स्टेशनों को पार करते हुए लगभग 21 घंटे की यात्रा के बाद हम अगले दिन सुबह साढ़े 3 बजे पुरी जंक्शन पहुँचे।
हमने पहले ही तय कर लिया था कि हमें ऐसी जगह ठहरना है जहां से मंदिर भी नजदीक हो और समुद्र तट भी। हमने सी.टी. रोड में एक अच्छा सा कमरा बुक किया था। तब तक सुबह के 6 बज चुके थे। होटल के मैनेजर ने बताया कि ओडिशा दर्शन के लिए पास से ही टूरिस्ट बसें खुलती हैं। हमने बस में 4 सीटें बुक कर दीं और ठीक 7 बजे बस में बैठकर ओडिशा दर्शन के लिए निकल पड़े।
बच्चे इस यात्रा को खूब एन्जॉय कर रहे थे। आखिर यह उनके जीवन की पहली लंबी यात्रा जो थी। टूरिस्ट बस में मौजूद गाइड ने यात्रियों को ज़रूरी दिशानिर्देश दिए और बस अपनी पूरी रफ़्तार के साथ आगे बढ़ने लगी।
हमारा पहला पड़ाव था पंचमुखी रामचंडी हनुमान मंदिर, पुरी। यहाँ दर्शन करने के बाद हम लोग चंद्रभागा समुद्र तट पहुँचे, जहाँ विशाल समुद्र के अद्भुत दृश्य हमारे सामने थे। यहाँ बीच पर बच्चों के साथ हम लोगों ने भी खूब मस्ती की। समुद्र की लहरें, ठंडी हवाएँ, और आसमान का खुलापन—सबने मानो मन को एक अलग ही सुकून दिया। तट पर हमने ढेर सारे फोटो भी खिंचवाए।
करीब 15 मिनट बाद गाइड ने सभी को जल्दी से बस में बैठने का संकेत किया, क्योंकि अगला पड़ाव सबसे खास कोणार्क का सूर्य मंदिर था, जहाँ हमें दर्शन के साथ भोजन के लिए भी अतिरिक्त समय मिलने वाला था।
कोणार्क सूर्य मंदिर में हमने करीब डेढ़ घंटे बिताए। इस दौरान मंदिर और आसपास की अद्भुत कलाकृतियों को देखने का अवसर मिला। पत्थर पर की गई नक्काशी, जो अब तक केवल चित्रों में ही देखने को मिलती थीं, उन्हें इतने नजदीक से देखकर मन रोमांचित हो उठा। विशेष रूप से पत्थर के विशाल पहिए को देखकर तो हम विस्मित रह गए। एक-एक नक्काशी उस दौर की कला, धैर्य और सौंदर्यबोध की गवाही देती है।
राजा-महाराजाओं द्वारा इन संरचनाओं के निर्माण के पीछे क्या मंशा रही होगी, यह शोध का विषय तो अवश्य है, लेकिन मेरा मानना है कि उस समय की कला के स्तर को समझने के लिए ऐसे निर्माण और स्मारकों का होना अत्यंत आवश्यक था। सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी यह स्मारक उस समय की जीवन शैली की ओर संकेत करते हैं।
विज्ञान और गणित के छात्रों को भी कोणार्क के सूर्य मंदिर का अवलोकन अवश्य करना चाहिए, क्योंकि जिस परिपक्वता और सटीकता से इन पत्थरों को तराशा गया है, वह हमारे पूर्वजों के गणित और विज्ञान के ज्ञान का अद्भुत प्रमाण है।
सूर्य मंदिर से निकलने के बाद हमने भोजन किया। क्योंकि सभी को जोरों की भूख लगी थी। हमने मारवाड़ी थाली ऑर्डर की थी। यात्रा के दौरान अधिक नमक, तेल और मसालेदार भोज्य पदार्थों से बचना चाहिए, विशेषकर बच्चों के खान-पान का ध्यान रखना जरूरी है।
भोजन के उपरांत हम लोग बस में अपनी जगह ले चुके थे। बस अब कोणार्क से भुवनेश्वर की ओर बढ़ चली। अगला पड़ाव था धौली का शांति स्तूप।
धौली स्तूप धौलिगिरि पर्वत पर स्थित है। यह भुवनेश्वर से लगभग 8 किमी दूर, दया नदी के किनारे स्थित है। यहाँ तक पहुँचने के लिए हमने ओडिशा सरकार द्वारा संचालित टूरिस्ट बस का सहारा लिया। पहाड़ी पर पहुँचने के बाद नीचे का नजारा अत्यंत अद्भुत दिख रहा था। पहाड़ी के शिखर पर एक बड़े चट्टान पर अशोक के शिलालेख उत्कीर्ण हैं। ऐसा माना जाता है कि इसी पहाड़ी पर ऐतिहासिक कलिंग युद्ध हुआ था। कहा जाता है कि यही वह स्थान है जहाँ युद्ध के बाद दया नदी मृतकों के खून से लाल हो गई थी। इसी घटना ने सम्राट अशोक को युद्ध की भयावहता से परिचित कराया और कालांतर में यही स्थान बौद्ध गतिविधियों का महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।
पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित चमकदार सफेद शांति स्तूप 1970 के दशक में जापान बुद्ध संघ और कलिंग निप्पॉन बुद्ध संघ द्वारा निर्मित कराया गया था।
धौली स्तूप का अवलोकन करते-करते कब दोपहर का एक बज गया, पता ही नहीं चला। हम लोग पुनः सरकारी टूरिस्ट बस की मदद से नीचे आकर अपने बस में बैठ गए। बच्चों ने इस दौरान अमरूद, पपीता और खीरा खाकर ताजगी महसूस की। यात्रा के दौरान बच्चों का खास ध्यान रखना जरूरी हो जाता है। उन्हें निर्जलीकरण से बचाने के लिए फल, जूस और नारियल पानी आदि देते रहना चाहिए।
अब हमारी बस अगले पड़ाव—विश्व प्रसिद्ध लिंगराज मंदिर की ओर जा रही थी। बस लिंगराज मंदिर कार्यालय परिसर में लगी, जहाँ से हम पैदल मंदिर परिसर की ओर बढ़े। लंबी कतारों के बाद अंतत: हमें मंदिर में प्रवेश मिला।
ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार, लिंगराज मंदिर का निर्माण 11वीं शताब्दी में सोमवंशी राजा ययाति केशरी ने करवाया था। किंतु ऐसी भी मान्यता है कि मंदिर में स्थित स्वयंभू शिवलिंग की पूजा 7वीं शताब्दी में भी की जाती थी। पौराणिक कथाओं के अनुसार इसका उल्लेख ब्रह्म पुराण में मिलता है। यह मंदिर हिंदू धर्म के दो प्रमुख संप्रदायों—शैव और वैष्णव–के मिलन का प्रतीक है।
यह मंदिर कलिंग वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है। इसके परिसर में विमान, जगमोहन, नटमंदिर और भोग-मंडप जैसी कई संरचनाएँ हैं, जिनकी नक्काशी और डिज़ाइन मन मोह लेते हैं। इसकी कुल ऊँचाई लगभग 180 फीट है।
लिंगराज मंदिर के बाद हम लोग प्रसिद्ध नंदनकानन प्राणी उद्यान पहुँचे। यहाँ प्रवेश शुल्क 50 रुपये है। यह पार्क भुवनेश्वर में लगभग 437 हेक्टेयर में फैला हुआ है। इसकी स्थापना वर्ष 1960 में की गई थी। वर्ष 2009 में यह भारत का पहला चिड़ियाघर बना जिसे विश्व चिड़ियाघर संघ (WAZA) में शामिल किया गया।
नंदनकानन का अर्थ है—स्वर्ग का बगीचा। यहाँ स्तनधारियों की 67, पक्षियों की 81 और सरीसृपों की 18 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। यह चिड़ियाघर विशेष रूप से सफेद बाघों के लिए प्रसिद्ध है।
सफेद बाघ को चहलकदमी करते देखना एक अनोखा अनुभव था। बगल में सिंह और सिंहनी आराम फरमा रहे थे। बच्चों ने भी इन्हें देखकर खूब आनंद लिया। थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर हमें बारहसिंघा, हिरन, चीतल, बंदर और कई अन्य जीव दिखे। पक्षियों में सारस, मोर, श्याम हंस, चील आदि को देखने का अवसर मिला।
नंदनकानन प्राणी उद्यान के जीव-जंतुओं को देखकर दिन भर की थकान जैसे कम होती गई। भ्रमण करते-करते शाम के 5 बज गए। अब हमें वापस पुरी लौटना था। सभी बस में बैठ गए और लगभग तीन घंटे की यात्रा के बाद हम पुरी पहुँचे।
दिन भर की थका देने वाली यात्रा के बाद हमने रात का भोजन जल्दी करके विश्राम किया।
Day-2 (17 नवम्बर 2025)
भगवान श्री जगन्नाथ जी का दर्शन
दूसरे दिन की शुरुआत पुरी बीच के भ्रमण से हुई। सुबह 5 बजकर 51 मिनट पर हम प्रसिद्ध गोल्डेन बीच पर पहुँच चुके थे। यह बीच हमारे होटल से लगभग 200 मीटर की दूरी पर था। अब तक सूर्योदय नहीं हुआ था। धीरे-धीरे विशाल समुद्र के भीतर से सूर्य ने झांकना शुरू किया। समुद्री लहरों पर सूर्य की किरणें पड़ते ही मानो सोने की परत सी चमक फैल गई। सूर्योदय का यह मनोरम दृश्य किसी का भी मन मोह ले। मैंने इस दृश्य को अपने फोन के कैमरे में कैद किया। लहरों की अठखेलियाँ देखते ही बनती थीं। यहाँ की साफ-सुथरी बीच को देखकर आपका मन प्रफुल्लित हो जाएगा। मैंने लगभग 30 मिनट तक सूर्योदय के इस नज़ारे का लुत्फ़ उठाया।
अब वापस होटल लौटना पड़ा, क्योंकि बच्चों के लिए दूध भी लेना था। होटल के आसपास चाय और नाश्ते की दुकानों में दूध गर्म करने की व्यवस्था होती है। गर्म दूध को थर्मस में भरकर दूसरी मंज़िल पर स्थित अपने कमरे की ओर बढ़ चला। अब तक बच्चे भी जग चुके थे। बीच की सुंदरता और सूर्योदय के मनोरम दृश्य का ज़िक्र करने के बाद बच्चों ने भी बीच देखने की इच्छा जाहिर की और ज़िद करने लगे। मैंने उनसे वादा किया कि शाम में चलेंगे।
सभी स्नान-ध्यान के बाद भगवान श्री जगन्नाथ जी के दर्शन के लिए तत्पर थे। मंदिर हमारे ठहरने के स्थान से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर था। हम लोग ऑटो रिक्शा से मंदिर तक की यात्रा पर निकले। मंदिर से थोड़ी दूर पहले ही हमें ऑटो से उतरना पड़ा क्योंकि आगे वाहन के आवागमन की अनुमति नहीं होती है।
जैसे ही दो कदम चले होंगे कि सामने श्री जगन्नाथ जी के भव्य मंदिर के दर्शन हुए। वह अद्भुत नील चक्र और उसके ऊपर शान से लहराता ध्वज अत्यंत सुंदर लग रहा था। ज्यों-ज्यों मंदिर के निकट आते गए, मन में अगाध श्रद्धा भाव जागृत होने लगा। भीड़ को नियंत्रित करने के लिए इस मंदिर के कॉरिडोर में चार अलग-अलग पड़ाव में लोगों को पंक्ति में खड़ा होना पड़ता है। अंतिम पड़ाव पर पहुँचने पर सुरक्षा जाँच होती है, जहाँ ओडिशा पुलिस के लोग बारी-बारी से सबकी तलाशी लेते हैं।
इस मंदिर में मोबाइल, खाने-पीने की चीज़ें, कैमरा आदि ले जाना सख्त मना है। अगर आप मोबाइल ले जाते हैं, तो उसे पहले ही मंदिर के बाहर कार्यालय में बने काउंटर पर जमा करवा कर पर्ची प्राप्त कर लें। हम लोगों ने भी ऐसा ही किया। अब हम लोग श्री जगन्नाथ जी के बहुप्रतीक्षित दर्शन के लिए पूरी तरह से तैयार थे।
सामने गरुड़ स्तंभ था, जिसके नीचे अनवरत ज्योत जलती रहती है। वहाँ से सामने मंदिर में भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन का आनंद ही कुछ और है। अब धीरे-धीरे हम लोग गर्भगृह की ओर बढ़ते गए। बड़ी और चौड़ी सीढ़ियों को चढ़ते हुए हम भगवान श्री जगन्नाथ जी की शरण में पहुँच चुके थे। यहाँ कुल 22 सीढ़ियाँ हैं। हालाँकि भारी भीड़ के बीच बच्चों को साथ लेकर दर्शन करने में थोड़ी कठिनाई तो होती है, लेकिन लाख दिक्कतों के बाद भी भगवान श्री जगन्नाथ जी के दर्शन ज़रूर होते हैं।
सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि इतनी भीड़ के बावजूद किसी तरह की कोई परेशानी या बेचैनी का आभास नहीं होता, ऐसा लगता है मानो भगवान साक्षात् हमारी सहायता कर रहे हैं। गर्भगृह में भगवान श्री जगन्नाथ जी, देवी सुभद्रा और भगवान बलदेव जी की मूर्ति के दिव्य स्वरूप के दर्शन से हम सभी धन्य-धन्य हो गए।
निकास द्वार से बाहर निकलने के बाद मंदिर प्रांगण में अन्य देवी-देवताओं के मंदिरों के दर्शन हुए। अब बारी थी प्रसिद्ध महाप्रसाद को ग्रहण करने की। मंदिर के ऊपर ही बायीं ओर एक बड़ा सा प्रांगण है, जहाँ सैकड़ों की संख्या में स्टॉल लगे हुए हैं और महाप्रसाद का वितरण होता है।
कहा जाता है कि भगवान श्री जगन्नाथ जी को दिन में 6 बार भोग लगाया जाता है और 56 प्रकार के व्यंजनों को बड़े ही निष्ठा और पवित्रता के साथ तैयार करवाया जाता है। ऐसी भी मान्यता है कि भगवान श्री जगन्नाथ जी की रसोई का दायित्व स्वयं माँ लक्ष्मी ने उठा रखा है। हम लोगों ने निर्धारित दर चुका कर महाप्रसाद प्राप्त किया और वहीं पास में नीचे बैठकर प्रसाद ग्रहण किया।
मंदिर के इस हिस्से में नीचे बैठकर महाप्रसाद ग्रहण करने का विशेष महत्व है। मंदिर के ऊपर से आसपास का नज़ारा बेहद खूबसूरत लगता है। ऊपर पानी पीने और हाथ-मुँह धोने की व्यवस्था भी है। कुछ देर ऊपर रुकने के बाद हम लोग पुनः सीढ़ियों से उतरकर नीचे आ गए। फिर गरुड़ स्तंभ के पास से भगवान श्री जगन्नाथ जी को प्रणाम किया और निकास द्वार की ओर बढ़ चले।
बाहर सड़क के दोनों ओर खूब सारी दुकानें हैं, जहाँ विभिन्न प्रकार की सामग्रियाँ मिलती हैं। यहाँ से आप प्रसाद, भगवान श्री जगन्नाथ जी की मूर्ति, तस्वीरें आदि प्राप्त कर सकते हैं। थोड़ी-बहुत खरीददारी करने के बाद हम लोग लगभग 2 बजे अपने होटल लौट आए। पूरे दिन की थकान की वजह से अब कहीं और घूमने की इच्छा नहीं रही। बच्चे भी लंबी-लंबी कतारों में लगने से थक चुके थे।
हम लोग संध्या में पुनः सपरिवार बीच पहुँचे और सूर्यास्त के अद्भुत दृश्य को देखा। यहाँ समुद्र की लहरों के साथ बच्चों ने खूब मस्ती की। बीच पर अँधेरा होने तक रुकने पर आसपास का दृश्य बेहद खूबसूरत लगता है। दुकानें रंग-बिरंगी रोशनी से जगमगाने लगती हैं। पास ही कई प्रकार की समुद्री मछली के स्टॉल भी लगे थे। खिलौने और सजावटी सामानों की दुकानों की रौनक देखते ही बनती है। यहाँ बच्चों ने पानी-पुड़ी और भुने हुए भुट्टे का स्वाद लिया।
लगभग साढ़े 6 बजे हम लोग वापस लौट गए। रात का भोजन हमने पास के रेस्तरां से ऑर्डर किया और खाना खाकर दिन भर की यात्रा को याद करते हुए अपने-अपने अनुभव साझा किए। रात के 9 बज चुके थे। हम लोगों को थकान की वजह से जल्दी ही नींद आने लगी। नवंबर का महीना होने के बावजूद उतनी ठंड नहीं लग रही थी।
सुबह जल्दी उठना था क्योंकि अगली यात्रा के लिए ट्रेन सुबह पुरी स्टेशन से खुलने वाली थी। हम लोगों ने 8 बजे होटल से चेक-आउट किया और पुरी स्टेशन के लिए निकल पड़े। पुरी जंक्शन के प्रथम श्रेणी विश्राम गृह में सारा सामान रखकर हमलोग वहाँ लगे सोफे पर बैठ गए। थोड़ी देर में पुरी–आनंदविहार नीलांचल एक्सप्रेस के प्लेटफॉर्म संख्या 8 पर लगने की उद्घोषणा होती है। हम सभी अपने सामानों को उठाकर ट्रेन में अपनी निर्धारित कोच ए-1 की ओर बढ़ चले।
अपनी सीट पर बैठते ही बच्चों ने धमाचौकड़ी मचाना शुरू कर दिया। उन्होंने जितने भी खिलौने खरीदे थे, उन्हें सीट पर फैलाकर खेलने लगे। 11 बजते ही ट्रेन खुल गई। लगभग 21 घंटे की यात्रा के बाद हम लोग वाराणसी पहुँचे। इस दौरान ओडिशा के प्रमुख शहर कटक को पार करते हुए महानदी के दर्शन हुए, साथ ही दूर-दूर तक फैले पहाड़ी क्षेत्रों को देखने का अवसर मिला।
बताते चलें कि नीलांचल एक्सप्रेस पुरी से चलकर भुवनेश्वर, कटक, भद्रक, हिजली, घाटशिला, टाटानगर, बोकारो, कोडरमा, गया जी, डेहरी-ऑन-सोन, भभुआ रोड, मुगलसराय होते हुए वाराणसी पहुँचती है। इस मार्ग पर हिजली स्टेशन के बाद अँधेरा बढ़ चुका होता है, इसलिए बाकी के स्टेशनों के नज़ारों को नहीं देख पाया। ख़ैर, सुबह 8 बजकर 4 मिनट पर हम लोग वाराणसी जंक्शन पहुँच चुके थे।
Day : 3 (19 नवम्बर 2025)
वाराणसी की यात्रा
स्टेशन से सीधा होटल पहुँच कर हमलोग फ्रेश हुए। सर्दियों में गुनगुने पानी से नहाने का अलग ही मज़ा आता है। बच्चों ने भी खूब मस्ती करते हुए स्नान किया और सभी तैयार होकर निकल पड़े वाराणसी दर्शन को। होटल से मात्र 1 किलोमीटर की दूरी पर काशी विश्वनाथ जी का कॉरिडोर था। हमलोगों ने सबसे पहले दशाश्वमेध घाट से प्रवेश किया। आपको बता दें कि यहीं पर माँ गंगा मंदिर भी है और विश्व प्रसिद्ध संध्या आरती इसी घाट पर होती है।
आगे प्रयाग घाट, राजेंद्र प्रसाद घाट, मान महल घाट, त्रिपुर भैरवी घाट को पार करते हुए ललिता घाट तक के दर्शन किए। यहाँ से हमलोगों ने नाव से सभी घाटों के दर्शन किए। इसी कड़ी में दरभंगा घाट का भी अवलोकन किया। यह गंगा नदी के किनारे स्थित एक प्रसिद्ध घाट है, जिसे 18वीं शताब्दी में दरभंगा के राज परिवार ने बनवाया था। यह अपनी सुंदर वास्तुकला, बारीक नक्काशी और गंगा के मनमोहक दृश्यों के लिए जाना जाता है।
नाव से सभी घाटों के मनोरम दृश्य को देखने का अलग ही आनंद आता है। क़रीब एक घंटे नौका विहार करने के बाद हमलोग मणिकर्णिका घाट पर उतरकर बाबा काशी विश्वनाथ जी के नवनिर्मित कॉरिडोर से होते हुए अंदर प्रवेश किए। बता दें कि मणिकर्णिका घाट का निर्माण इंदौर के महाराज ने करवाया है। पौराणिक मान्यताओं से जुड़े मणिकर्णिका घाट का धर्मप्राण जनता में मरणोपरांत अंतिम संस्कार के लिहाज़ से अत्यधिक महत्त्व है। इस घाट की गणना काशी के पंचतीर्थों में की जाती है।
मणिकर्णिका घाट पर स्थित भवनों का निर्माण पेशवा बाजीराव तथा अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था। मोबाइल, घड़ी, कीमती सामानों को रखने के लिए यहाँ लॉकर की निःशुल्क व्यवस्था है। ध्यान रखें कि अपने सामान को मंदिर ट्रस्ट द्वारा स्थापित आधिकारिक लॉकर में ही जमा करवाएं एवं टोकन अवश्य प्राप्त कर लें और इसे संभाल कर रखें।
अब बारी थी लंबी कतार में लगने की। लगभग 15 मिनट कतार में लगने के बाद धीरे-धीरे हमलोग बाबा विश्वनाथ जी के मुख्य मंदिर के नज़दीक थे। स्वर्ण जड़ित गुम्बद को देखना एक अनोखा अनुभव था। गर्भगृह में चार छोटे-छोटे द्वार हैं। हमलोगों ने बाबा के दर्शन बड़े प्रेम से किए और आशीर्वाद लिया। बच्चों को भी दर्शन करवाने में कोई खास परेशानी नहीं हुई।
मंदिर परिसर में ही माँ अन्नपूर्णा के रूप में देवी के दर्शन होते हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर में ही ज्ञानवापी कुआँ स्थित है, जिसमें एक शिवलिंग है। इसका दर्शन अत्यंत शुभ माना जाता है। ऐसी कथा है कि मुगलों ने बाबा विश्वनाथ मंदिर को कई बार क्षति पहुँचाई। मंदिर को तोड़ा गया। एक बार जब पूरे मंदिर को ध्वस्त करने के बाद शिवलिंग को क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से मुग़ल सेना आगे बढ़ी, तो स्थानीय पंडा और सन्यासी अघोरीयों ने वास्तविक शिवलिंग को ज्ञानवापी कुएँ में छुपा दिया था। आज भी वह कुआँ इस घटना की याद को समेटे हुए है।
दर्शन के उपरांत हमलोग निकास द्वार से बाहर आकर कॉरिडोर के बड़े से आहाते में आ गए, जहाँ अहिल्याबाई होल्कर की विशाल मूर्ति लगी हुई है। काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण 1780 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा ही कराया गया था। इससे पहले, 1585 में राजा टोडरमल के प्रयास से भी इसका पुनर्निर्माण हुआ था, लेकिन 1669 में औरंगजेब ने इसे ध्वस्त कर दिया था।
इसी परिसर में भारत माता की मूर्ति और आदि गुरु शंकराचार्य जी की प्रतिमा भी लगी हुई है। कुछ क्षण यहाँ बिताने के बाद हमलोग वाराणसी की तंग गलियों से चलते हुए मणिकर्णिका द्वार से बाहर निकलकर मुख्य सड़क पर आ गए। यहीं एक होटल में हमलोगों ने भोजन किया। भोजन के बाद यहाँ भी खरीददारी के अवसर मिले। प्रसाद, खिलौने, कपड़े, खाने-पीने और सजावटी वस्तुओं की दुकानों की भरमार है।
अब घड़ी में 3 बज रहे थे। हमलोगों ने होटल पहुँच कर आराम करने का विचार किया। संध्या में फिर से आसपास मौजूद बाजार में घूमने का अवसर मिला। मेरी इच्छा थी कि सारनाथ भी घूम लिया जाए, लेकिन अगले दिन वापसी का टिकट था और मेरी छुट्टियाँ भी बची नहीं थीं, तो हम घूम नहीं पाए।
आपको बता दें कि वाराणसी स्टेशन से सारनाथ स्टेशन की दूरी मात्र 8 से 9 किलोमीटर की है। वहाँ से सारनाथ का विश्व प्रसिद्ध स्तूप और संग्रहालय 500 मीटर की दूरी पर है। भविष्य में कभी दुबारा मौका मिला तो सारनाथ के स्तूप को देखने ज़रूर जाऊंगा।
अगले दिन यानी 20 नवम्बर को सुबह 7 बजे हमलोग वाराणसी जंक्शन पहुँच चुके थे, क्योंकि 8:05 बजे स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस से वापस घर लौटना था। गाड़ी अपने समय पर प्लेटफ़ॉर्म संख्या-1 पर आकर लगी, हमलोगों ने अपना सामान चढ़ाया और निर्धारित सीट पर जाकर बैठ गये. लगभग 11 घंटे की यात्रा के बाद हमलोग सकरी जंक्शन पर संध्या 7 बजे उतरे।
मैं अपनी इस लंबी धार्मिक और सांस्कृतिक यात्रा को आजीवन भूलने वाला नहीं हूँ। सभी जगह के दिव्य अनुभवों को आप सबों के साथ साझा करने का भरसक प्रयास किया है। आशा है आपको मेरी यह यात्रा-वृतांत पसंद आएगी। कहीं अगर किसी तरह की टंकण भूल अथवा तथ्यात्मक भूल हुई हो तो क्षमा करेंगे। अगर आप भी किसी जगह घूमने जाते हैं तो अपनी यात्रा-वृतांत अवश्य लिखें। यह हमारी यादों को ताज़ा करने में हमारी मदद करता है।
आपके सुझाव एवं प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा.
धन्यवाद!
© रवि रौशन कुमार
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यात्रा अवधि : 15 नवम्बर से 20 नवम्बर 2025
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शानदार यात्रा वृतांत ✨❤️
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