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Showing posts from January, 2019

गणतंत्र दिवस मनाने का औचित्य

गणतंत्र दिवस हो या स्वतंत्रता दिवस हम भारतवासियों को एक मौका देता है उन वीर सपूतों को याद करने का, जिनकी वजह से आज हम स्वतंत्रतापूर्वक जीवन जी रहे हैं. इन दिवसों को मनाने का मतलब सिर्फ संदेशों और शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करना मात्र नहीं है अपितु ये वो अवसर है जब हम अपनी आने वाली पीढ़ी को एक मजबूत, शिक्षित, आत्मनिर्भर और सशक्त राष्ट्र सौंपने की दिशा में अपने प्रयासों की समीक्षा कर सकें. ये वही दिवस है जिस दिन फिजाओं में सिर्फ राष्ट्रभक्ति गीतों की धुन ही न बजे बल्कि हम सभी देशवासियों के हृदय में भी राष्ट्र प्रेम की धुन बजनी चाहिये.  विशाल लोकतान्त्रिक देश होने का दंभ भरने मात्र से कुछ नहीं होगा. बल्कि हमे देश के वर्तमान राजनीतिक हालातों की गंभीरता पर भी ध्यान देना होगा. लोकतन्त्र के चारों स्तंभों के कार्य प्रणाली में आए ह्रास को गंभीरता से लेते हुए सुधार की दिशा में बढ़ना होगा. राजनीतिक दलों को भी येन-केन प्रकारेण चुनाव जीतने की जिद्द छोड़नी होगी तभी स्वस्थ लोकतन्त्र की कल्पना साकार हो सकेगी. संविधान निर्माताओं की परिकल्पना को साकार करने की दिशा में अभी भी बहुत सारे कार्य...

विकसित भारत का सपना

2020 तक विकसित भारत का सपना हमारे पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलम साहब ने देखा था. आज भले ही वो हमारे बीच नही हैं किन्तु उनके बताये गये विकास का खांका अनुकरणीय है. उनके द्वारा कहा गया था कि सीमित संसाधनों के बावजूद विवेकपूर्ण क्रियान्वयन के द्वारा हम देश की मौलिक समस्याओं से निपट सकते हैं. बिहार, झारखण्ड, ओड़िसा, बंगाल और छत्तीसगढ़ जैसे समस्याग्रस्त राज्यों को दरकिनार कर देश के विकास की कल्पना करना मुश्किल है. इन राज्यों में गरीबी और बेरोजगारी बहुत बड़ी समस्या है. यहाँ मौजूद संसाधनों का उपयोग अन्य राज्यों के विकास में हो रहा है लेकिन अपने राज्य की हालत ख़राब है. चाहे वो कोयला हो, लौह अयस्क हो, वन संसाधन हो अथवा मानव संसाधन. इन पिछड़े राज्यों में प्रतिभा की कमी नहीं है. आज गुजरात, महाराष्ट्र और दिल्ली के विकास में इन पिछड़े राज्यों के मानव संसाधन की बड़ी भूमिका है. केंद्र सरकार की योजनाओं में इन राज्यों के लिए अतिरिक्त प्रावधान का आभाव आज भी दीखता है. जबकि इन राज्यों में उद्योग, परिवहन, सेवा जैसे तमाम क्षेत्रों के विकास की अपार संभावनाएं मौजूद हैं. बिहार में जल संसाधन का समुचित प्रबंधन कर यहाँ क...

नवाचारी प्रवृति का स्वाभाविक विकास

भारत में स्किल इंडिया, स्टार्ट अप, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसे कई महत्वाकांक्षी योजनाओं की शुरुआत बड़े ही जोर-शोर से की गयी है. इनमे से कुछ के तो प्रभाव भी दिखने लगे हैं. लेकिन इन योजनाओं से यथा शीघ्र रोजगार के अवसर बढ़ेंगे ऐसा सोचना जल्दबाजी होगी. क्योंकि आज भी भारत की एक बड़ी आवादी गाँव में रहती है. जहाँ कृषि में जोखिम को देखते हुए निवेश कम है तो वही किसान अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने के लिए सब कुछ दांव पर लगा देते हैं. और जब उनके बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं तो कई बार अवसर की सीमित उपलब्धता के चलते वे बेरोजगार ही रह जाते हैं. इस दिशा में स्किल इंडिया प्रोग्राम लाभप्रद तो है. लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्त बेरोजगार युवकों के लिए अधिक उपयोगी साबित नही होगी. जरुरत है स्कूली स्तर पर व्यावसायिक और व्यावहारिक शिक्षा देने की ताकि विद्यालय छोड़ने के तुरंत बाद बच्चे अपने पसंदीदा क्षेत्र को चुन सके. घिसी-पीटी पारंपरिक शिक्षा व्यवस्था में बच्चे रट्टू-तोता बन कर अपने ज्ञान के दायरे को बढा नही पा रहे हैं. चीन और जापान की शिक्षा व्यवस्था से सीख लेते हुए हमें प्रारंभिक और माध्यमिक स्तर पर ...

सरकारी विद्यालयों के लिए नये सिरे से जवाबदेही तय हो

              सुविधाओं के मामले में सरकारी विद्यालय निजी विद्यालयों से कम नही हैं. सरकारी शिक्षकों का वेतन निजी विद्यालयों के शिक्षकों से अधिक है. सर्व शिक्षा अभियान से पर्याप्त धन उपलब्ध कराया जाता है. अद्यसंरचना भी अब तंदरुस्त हो चुकी है. छात्र-छात्रों  के लिए मुफ्त किताबें, पोशाक, छात्रवृति, पेयजल, स्वच्छता जैसे आधारभूत सुविधा उपलब्ध है. इसके बाबजूद सरकारी विद्यालय में पढाई  का स्तर बहुत नीचे है. आज जरुरत है सरकारी विद्यालयों के लिए नये सिरे से जवाबदेही तय करने की. निजी विद्यालयों के तर्ज़ पर अनुशासन को अनिवार्य बनाना होगा. अनुशासन का पाठ छात्र और शिक्षक दोनों को पढ़ाने की जरुरत है. शिक्षा राजनीति की शिकार होती जा रही है. ऐसे में आवश्यक है कि शिक्षक राजनीति से दूर रहें और पठन-पाठन पर ध्यान लगायें. छात्र-शिक्षक सम्बन्ध भी सवालों के घेरे में है. दिनानुदिन इस सम्बन्ध में गिरावट आ रही है. अतः समाज में शिक्षण संस्थान और शिक्षकों के प्रति आस्था और सम्मान का भाव जगाना नितांत जरुरी है. 

नैतिक शिक्षा को पाठ्यक्रम में जोड़ा जाए

समाज के गिरते मूल्यों के लिए हम एक-दुसरे को कोसते है. लेकिन कभी इस बात की    ओर हमने ध्यान दिया है कि भ्रष्टाचार, झूठ-फरेव, छीना-झपटी, बालात्कार जैसी घटनाओं को अंजाम देने जैसी प्रवृति किसी व्यक्ति में कैसे पनपते हैं? निश्चित रूप से ऐसे गुणों को व्यक्ति अपने बचपन के दिनों में ही अपने परिवेश से सीखता और अनुकरण करता है. अतः बच्चों को प्रारंभिक कक्षाओं में नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाना बेहद जरुरी है. ऐसा माना जाता रहा है कि अच्छे शिक्षक बच्चों को किताबी ज्ञान के साथ-साथ व्यावहारिक ज्ञान भी देते हैं, किन्तु आज विद्यालयों में पाठ्यक्रम को पूरा करना ही मुख्य उद्देश्य बन कर रह गया है. भ्रष्टाचार, चोरी, झूठ जैसे बुराइयों के प्रति बच्चों की आसक्ति न हो इसके लिए बेहद जरुरी है कि परिवार के स्तर पर उनके अन्दर अच्छे गुण सिखाये जाए. लेकिन आज के व्यस्ततम जीवन में अभिभावकों के पास समय का अभाव है. ऐसे में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर विद्यालय पाठ्यक्रम में ही नैतिक शिक्षा को शामिल कर दिया जाना चाहिए ताकि उनके अन्दर अच्छे विचारों का संचार हो, और वे अपने जीवन के प्रत्येक कदम को सामाजिक हित को ध्यान...

कब बनेंगे हम जिम्मेवार नागरिक?

लोकतान्त्रिक देशों में खासकर भारत जैसे देश में जनता को विरोध करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। विभिन्न माध्यमों से हम सरकार और उससे जुड़ी एजेंसियों की मुखालफत करते रहते हैं, कमियां गिनाते  हैं, विरोध प्रदर्शन करते हैं। कुछ हद तक तो ये सब ठीक है परंतु ये हमारी संस्कृति का हिस्सा न बने तो बेहतर। क्योंकि सिर्फ अधिकारों को प्राप्त करने की चाहत उचित नहीं, हमें अपने कर्तव्यों का भी आभास होना चाहिये।          सरकारी योजनाओं में व्याप्त विसंगतियों के लिये जिम्मेवार तत्व का मनोबल बढ़ाने का काम भी हम और आप जैसे लोग ही तो करते हैं। किसी की हकमारी करके खुद को लाभान्वित करने की चाहत अर्थात स्वार्थ के आवेश में हम दूसरों के अधिकार का हनन कर बैठते हैं।          जैसे हम स्वच्छता की बात तो करते हैं परन्तु उसके लिये आगे बढ़कर प्रयास नहीं करते। सरकार और उसके मुलाजिमों से अपेक्षा रखते हैं कि वो इस काम को करें। क्या ये हमारी जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिये कि हम व्यक्तिगत और सामुदायिक स्वच्छता को तरजीह दें। सड़कों पर कूड़ा फेकना, यत्र-तत्र थूकना,...

पर्यावरण अध्ययन के प्रति जन चेतना की आवश्यकता

*पर्यावरण अध्ययन के प्रति जनचेतना की आवश्यकता*       मनुष्य इस समय जिन भौतिक सुख सुविधाओं और सम्पदाओं का उपभोग कर रहा है, वे सभी विज्ञान एवं तकनीकी ज्ञान के वरदान है, ‘‘लेकिन यदि विज्ञान एवं तकनीकी ज्ञान का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग नहीं किया गया तो इस वरदान को अभिशाप में बदलते देर नहीं लगेगी। ऊर्जा उत्पादनों के संयंत्र, खनन, रासायनिक एवं अन्य उद्योग आज के मनुष्य के कल्याण के लिए अपरिहार्य बन गये हैं। लेकिन ये ही चीजें हमारी बहुमूल्य सम्पदाओं, यथा, वन, जल, वायु एवं मृदा आदि को अपूर्णीय क्षति भी पहुँचा सकती है। पर्यावरणीय अवनयन के खतरे नाभकीय दुर्घटनाओं के समकक्ष खतरनाक है, लेकिन इस भय से औद्योगीकरण एवं विकास योजनाओं को बन्द नहीं किया जा सकता। इसलिए हम सभी को एक मध्यम मार्ग अपनाने की जरूरत है। इस मध्यम मार्ग का अर्थ है सम्पोषित अथवा निर्वहनीय विकास की नीति को अपनाना। मनुष्य में निर्वहनीय विकास एवं उसकी जीवनषैली को अपनाने की समझ तो सम्यक पर्यावरणीय अध्ययन के प्रति जनचेतना को प्रबुद्ध करने से ही उत्पन्न हो सकती है।’’       पर्यावरण अध्ययन के प्रति जन...

प्लास्टिक वरदान या अभिशाप

         सभी वैज्ञानिक आविष्कारों के पीछे समाज कल्याण की भावना छिपी रहती है। दुनिया के तमाम आविष्कार जनहित के लिये ही होता है। परंतु प्रत्येक कृत्रिम सुख सुविधाओं के अपने लाभ और हानि होती है। जब किसी वस्तु या सुविधा के लाभ उसके हानि की तुलना में कई गुना अधिक होता है तब हम उन नवीन आविष्कार को अपना लेते हैं। कभी-कभी दूरगामी प्रभावों की चिंता किये बिना ही हम किसी नवीन आविष्कारों को सिर्फ इसलिये भी अपना लेते है क्योंकि वे हमारे श्रम, समय और पैसे की बचत करता है। प्लास्टिक का ही उदाहरण अगर  लिया जाय तो हम देखते हैं कि जब प्लास्टिक या पॉलीथिन आदि का इस्तेमाल प्रारम्भ हुआ था उस वक़्त यह किसी वरदान से कम नहीं था। धरल्ले से प्लास्टिक प्रयोग शुरू हो गया। रोजमर्रा के जीवन में प्लास्टिक ने अपनी पैठ बना ली। लोगों ने भी इसे हाथोंहाथ लेना शुरू किया। कपड़े और जूट के बने थैले लेकर चलने में शर्मिंदगी का एहसास होने लगा। लोग खाली हाथ बाजार जाते और प्लास्टिक के ढेर सारे थैलों में चीजें भर-भर कर घर लाने लगे थे। लेकिन समय के साथ-साथ पॉलीथिन के दुष्परिणाम भी सामने आने लगे। आज ये गम...

#MeToo कैंपेन : आलोचनात्मक टिप्पणी

एक तरफ़ हम सभी महिलाओं को जागरूक करने की बात करते हैं, उन्हें अपने हक़ के लिए लड़ने को कहते हैं, अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाने की नसीहत देते हैं; और दूसरी तरफ जब महिलाएं अपने ऊपर हुए अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाती है तो हम उनके आवाज को दबाने के लिये हर सम्भव प्रयास में जुट जाते हैं। हाल के  # MeToo  कैंपेन का ही उदाहरण लीजिये; कितने ही रसूखदार लोगों के खिलाफ सम्भ्रांत महिलाओं ने आरोप लगाया है। चाहे वो क्रिकेटर हो, पत्रकार हो, अभिनेता हो, राजनेता हो या अन्य किसी भी क्षेत्र से सम्बंध  रखने वाले लोग हों। सभी ने इन आरोपों को एक सिरे से नकार दिया है, इतना ही नहीं आवाज उठाने वाली महिलाओं के खिलाफ मान हानि का मुकदमा तक ठोक दिया है। सरकार में बैठे लोगों पर भी ऐसे आरोप लगे हैं। जरा सोचिए ऐसे में कोई महिला/युवती अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने का हौसला कहाँ से जुटा पाएंगी। ज्ञातव्य हो कि विदेशों में अगर ऐसे आरोप किसी मंत्री अथवा नेता पर लगता है तो तुरंत उनसे इस्तीफा ले लिया जाता है। लेकिन हमारे प्रधान सेवक की चुप्पी यह साबित करती है कि भारत में कानून का चाबुक ...
INDO-NEPAL Relationship While being parts of broader Nepal and India share special closeness and similarity in cultural tradition. They are so closely and strongly interlinked by social life and cultural tradition that nobody can imagine to separate them. Both have made great contributions to enriching religious and cultural heritage in this region, and beyond. Lord Buddha, born in Nepal, has left his footprints not only in South Asia but all over the world. Sita, the daughter of Nepal, who was married to Ram, the crown prince of Ayodhya in India, has made special place in the hearts of Hindus living anywhere in the world. The contributions made by Indian philosophers and saints need no further elaboration. It is these great personalities of this region that have helped evolve, develop and spread the cultural heritage that is proudly known today as the South Asian culture. The cultural links between Nepal and India have many facets. Religion is perhaps the most important factor...